Monday, August 31, 2015

घर की धेली में बैठे हरीकिशन बुबू

हरीकिशन बुबू धेली में बैठे हुए चिलम हाथ में पकड़ कर गुड़गुड़ाते हुए देबुली की ईजा को कहते हुए 
 क्यों लिपाई कर रही है इस आँगन की कौन आने वाला है इस पटागण माल बखायी के गोपी दा आ जाते थे कभी कभी वो भी नही रहे  निचे के धनुका अपने बच्चों  के साथ चले गए है तेरे मेरे लिए बैठने के लिए ये धेली ही काफी है। 

 देबुली की ईजा तुमते के नि करना काम धाम ना मके करण दिच्छा किले को नि ले आले इसकै भल जे के लागु घर तुम दुकानम बटी चाह हगे और कटक हगे लि आओ ब्याय बखते हे कटक न्हाती फिर मुहु झन के आयि त्यार ले मुखा मुखी एगो देबुली ले आली इक ले हाथम धरु के डबल टाका ले करया। 

हरीकिशन बुबू धेली में बैठकर झुरझुराई आँखों से बाहर को देखते हुए और मन ही मन सोचते है चार दिन पहले ही १३ ज्योड बेचे है। और मेरे इन ज्योड़ो को इतनी जल्दी लेगा भी कौन दूकानदार उधार कब तक देगा और क्या सोचेगा ये सब सवाल मन में उठ रहे है। 

फिर दुबारा दिवार का आश्रा लेकर बुबू ताहर को लेकर  ज्योड बाटने बैठ जाते है साम तक बड़ी मुश्किल से 3 ज्योड बाट पाये और सामान भी ज्यादा है 

हरीकिशन बुबू कंधे में झोला लटकाये हाथ में जाठि लिए हुए कंधो में बुढ़ापे का बोझ लिए हुए दूकान की ओर निकल जाते है दुकान में पूंचते - पूंचते  हाफ रहे थे मानों डैम घुटने को हो रहा था। 

दुकानदार - बुबू अभी तो आप के पहले वाले ज्योड नही बिके है बुबू आजकल कौन बाद रहा है गाय भैस सब शहरो की तरफ चले गए है सही कह रहे हो बेटा तुम क्या करे हमारी किस्मत में यही की रोटी है। 

बुबू अभी तो जरुरत नही पर आप इतनी दूर से आये हो तो  रख लेता हूँ ३० रूपये होंगे इनके आपको पैसे दू या आपको कुछ सामान लेना है। बुबु बेटा सामान तो लेना था पर ये रूपये कम पड़ जायंगे उधार करना पड़ेगा में कहा से चुकाऊंगा रकम मेरे पास तो कोई आमदनी भी नही इस साल तो गहत की दाल भी इतनी नही हुई है जो बेचु बड़ी समस्या है बेटा हम दोनु की आँखे बंद हो जाये वही अच्छा रहेगा। 


बुबू कुछ सामान लेकर कंधे में झोला लटकाए हुए आते है घर को वही आमा आज सब्जी कुछ न होने के कारण मेथी का पानी उबाल रही इतने में बुबू अपना झोला थामते हुए आमा के हाथ बुबु ये उम्र का बोझ भी उत्तर जाता इस झोले के बोझ की तरह अच्छा होता अब नही सहा जाता ये बुढ़ापा शायद आज बुबू बड़े ही परेशान नजर आ रहे है। 


आमा जाओ हाथ मुह धो लो मंदिर में दिया जला देना में पुस की रात की ठण्ड बढ़ते जा रही इतनी ठण्ड में मेरे हाथ पाँव सूज जाते है।  इतने में बुबु अपना चस्मा साफ़ करते हुए  देबुली की ईजा इस उम्र  का बोझ नही सहा जाता है अब तो भगवान ही कोई अपने घर का कोना दे दे वही दिन गुजार लिंगे ठीक कहते हो 


अगला भाग फिर 


मित्रों इस लेख को पढ़ कर आप सबका मन भावक जरूर हुआ होगा इसके लिए माफ़ी चाहूँगा और हो सके तो बताएगा जरूर। 

श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
फोटोग्राफ़ी - कमल जोशी 

Thursday, August 27, 2015

देव भूमि महान

यहाँ पग पग पर विराजते है भगवान।
इसलिए तो है ये देवो की
देव भूमि महान।।
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
फोटोग्राफ़ी - श्याम जोशी

देव भूमि महान

यहाँ पग पग पर विराजते है भगवान।
इसलिए तो है ये देवो की
देव भूमि महान।।
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
फोटोग्राफ़ी - श्याम जोशी

Tuesday, August 25, 2015

हे पहाड़ की नारी तुझे मेरा प्रणाम




हे पहाड़ की नारी तुझे मेरा प्रणाम।


सिर में बोझ लिए ज़िन्दगी का नाम
चलते  जाना रुकना नही तेरा काम 

हे पहाड़ की नारी तुझे मेरा प्रणाम।

तुम को करते है हम सब सलाम। 
हे पहाड़ की नारी तुझे मेरा प्रणाम।।

हे पहाड़ की नारी तुझे मेरा प्रणाम।

ज़िन्दगी की हर मुश्किल को करना आसान।
सुबह से लेकर शाम तक तुझे नही मिलता आराम।।

हे पहाड़ की नारी तुझे मेरा प्रणाम। 

ना धुप देखना  ना छावं देखना  ना बारिश। 
कैसे कहु किन शब्दों में करू तुम्हारी तारिफ।।

हे पहाड़ की नारी तुझे मेरा प्रणाम। 



इस तस्वीर को अपने कैमरे में कैद करने के  लिए खुद को रोक नही पाया।

रचना                                                                   
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )



                                                                                               उत्तरांचल दीप प्रकाशित  31 अगस्त 2015  










                                                   

















                                                                            हरदौल वाणी अंक 31 में छपी मेरी यह रचना हे पहाड़ की नारी तुझे मेरा प्रणाम


















Tuesday, August 11, 2015

अल्झि-अल्झि जैसी गयी हूँ


क्याप-क्याप जैसा होना लगा है।  
अल्झि-अल्झि जैसी गयी हूँ ।।


अणकैसे अणकैसे जैसा  सोचती हूँ। 
आतव पताव जैसा मुह से निकल जाता है।। 


कही जाती हूँ तो  मुनव घूमने जैसा लगता है। 
मणी- मणी कपावम जैसी पिड़ चितायी देती है।।


रत्ति टैम  को कम- कम जैसा लगता है। 
जैसे ही ब्याव पड़ती है बकायी जैसा हो जाता है ।।  


क्या करू मुझे तो अब अणकसी जैसा हो जाता है। 
कभी मणी- मणी तो कभी सकर -सकर जैसा हो जाता है।।


तुम को जब देखती हूँ  माल धारम को जाते हुए। 
तो में कभी भ्यार कभी भीतेर नाचने जैसी लगती हूँ।।



अरे परुली  मुझे लगता है तुझे प्यार नही मसाण  जैसा लग गया है। 

रचना 
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित ) 

Friday, August 7, 2015

ग्वाला वाला बचपन

आज कल पहाड़ों में कुछ इस तरह का नजारा देखने को मिलता है, जो बेहद खूबसूरत लगता है हरे भरे मैदान और  कही गाय चरती  हुई नजर आती है तो कही कोई पहाड़ी महिला घास काटते हुए दिखती है।

इस तरह के द्रश्यो को देखकर अपना भी बचपन याद आ जाता है कभी हम भी इसी तरह गायों  को लेकर जंगल चले जाते थे  कही आस पास कोई खेत में ककड़ी की बेल नजर आती तो टूट पड़ते थे चाहे वह ककड़ी का फूल भी नही झड़ा होता था उसे ही खा जाते थे।

almora तब के हमारे खेल भी बड़े अनोखे होते थे तब ना कोई   मोबाइल होता था  फिर भी हमारे वो दिन बड़े अच्छे होते थे कोई कनिस्टर को काट कर बजाने वाला बना के बांस की लकड़ी से बजाते थे और वही निगाव की बसीं भी या फिर गदुवे की बेल की पिपरी बना के बजाना कही धार में बैठ कर या फिर सब मिलकर जागर लगाना सबको अलग -अलग प्रकार के देवता बना के नचाना किसी एक को दास भी बनाया जाता था।


इन सब खेलों में मेरा पसंदीदा खेल हमेशा लुका छुपी रहा मुझे बड़ा आनंद आता था इस खेल को खेलने  में हालंकि मैने बहुत शरारतें भी करी है।


हिटो दाज्यू  न्हे जुले हरियाली डानो मां। 
फिर आपण बचपन के याद करले उन डाना मैं।।   


आप भी अपनी बचपन की यादों को साँझा करएगा जो आप ग्वाला जाकर करते थे ।


श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )

Monday, August 3, 2015

संस्कृति के रिवाज

हमारे संस्कृति के रिवाज तो वैसे सभी अच्छे लगते है कुछ हमें खुशियाँ दे जाते है तो कुछ उदासियाँ उन्ही में से एक यह रिवाज हमारी संस्कृति का अहम हिसा है। यह रिवाज मन को भावक करने वाला है शायद अपने भाई के संग बचपन के दिन भी याद दिलाता है कुछ मौजमस्ती कुछ लड़ाइयाँ उन सब पलों को याद दिलाता है ।

Shyam weds manisha देखो भैया जब थी तुम्हारे संग 
तुम करते थे मुझे बुहत तंग 

आज में इस घर से बिरान हो रही हूँ 
तो तुम हो रहे हो परेशान 

यह कैसा रिश्ता है कैसी रस्म है 
जो हर लड़की को निभानी है 
उस आँगन में हम 

एक पंछियो की तरह रहते थे 
जब लगे पर तो
हमारा भी घोंसला दिया बदल।।


श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )