Saturday, August 6, 2016

ज़िन्दगी रह गयी परदेस की यादें रह गयी पहाड़ों की

कौन जानता है हमें 
हमें कौन पहचानता है हमें 
क्या है हमारी पहचान 
क्या है हमारी बोली भाषा 
क्या है हमारे त्यौहार 

आज सच में मन बड़ा उदेख है गिर्दा का गीत याद आ रहा है ज्यदा एक दिन आले य दूनी में पर कब आएगा वो दिन कब काम हम लोग इस तरह रोज आँशु बहा कर सो जायँगे सुबह फिर बैग लटका के निकल जायँगे बिरान मुल्को में कब तक शायद मेरी तरह कितने भाई लोग है जो रोज रात को बेडु पाको बारामासा गीत सुनकर अपने मन को बहलाकर सोते है कब तक। 

क्या कमाते है हम यहाँ क्या खाते है हम पता नही चलता हमारे माँ बाबु को कैसे रहते हम यहाँ नही मिलता वो बुबु और आमा का प्यार नही मिलता वो ईजा का प्यार हर बख्त मन को समझाते रहते है कब आएगी होली कब आएगी दिवाली रक्षा बंधन में राखी अपने आप बहन की याद पहन लेते है कभी मन करे तो सिल्वर की कड़ाही में आलू के गुटके तो बना लेते है फिर वह घर का हरा धानिया नही मिलता है ईजा यहाँ न ही सील बट्टे का तेरे हाथो से पिसा नमक लस्सी ( छा) पिने का मन तो बहुत करता है पर उस डिब्बे वाली लस्सी से नोडी नही मिलती खाने को दही यहाँ की जिसमें पाउडर मिला है ठेकी देखता हूँ कभी कभी फेसबुक में तो ईजा तेरी बड़ी याद आती है। 

भटी राजड़ खाये तो सालो गुजर गए है भट्टी डुबक बना लेता हूँ कभी कबार मिक्सी में पीस कर आमा के हाथो वाला स्वाद नही मिलता फिर भी मन को रखने के लिए फोटो खींच कर सबको भेजता हूँ फेसबुक में डालता हूँ लाइक मिलते है तो खुस हो जाता हूँ पर अम्मा अंदर के मन से रोता हूँ। यहाँ खुशियां भी पैसो से मिलती है और मेरे पहाड़ में पेड़ के नीचे बैठ कर पता नही हम कितनी खुशिया ले लेते थे। 

जब कभी होते है अपने त्यौहार तो बना तो लेता हूँ पूरी और खीर पर उस चूल्हे की खुस्बू सी नही आती है ना ही वो घर के लाल चावल मिलते है यहाँ करने को मैं तेरे जैसा करता हूँ ईजा यहाँ भी पर फिर भी जैसा तू करती थी वैसा कुछ नही होता है। 


लेख 
श्याम जोशी ( अल्मोड़ा चंडीगढ़)
9876417798



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