Wednesday, February 25, 2015

गड़ुए की धार

कुछ मनभावन रस्मों से होता है विवाह अपने पहाड़ो में।
घर परिवार ही नही पूरा गांव लगता है निबाह में।।
एक ऐसी ही रस्म है - वो गड़ुए की धार।।
मानों सिमट गया हो उसमें माँ की ममता।
पिता का दुलार ,
मनभावन रस्मों से होता है विवाह अपने पहाड़ो में।
एक नन्हीं सी कली ना जाने कब ईतनी बड़ी हो जाती है।।
छोटी- छोटी ख्वाहिशों के लिए जिद करके रोने वाली।।
सबकी ख्वाहिशों के समेटे आज।।
कुछ नए रिश्तों में बधने को बैठ जाती है।।
मंडप में,
माँ- बाबू वो जो एक आँसू भी ना गिरने देते थे ।।
उस गड़ुए की धार के साथ आज- मानो।।
सब कुछ बहाने को है तैयार खड़े होते।।
और लड़की देखती है तो बस उस ।।
गड़ुए की धार को,
गड़ुए की धार तो सबको दिखती है ।।
बस नही देखती है तो मासूम के आँसुओ की धार।।
जो निरंतर बहते रहते है उसके पिछोड़े की आड़ में
कुछ मनभावन रस्मों से होता है ।।
विवाह अपने पहाड़ो में,
कुछ ऐसी ही रस्मे है हमारे पहाड़ो में जो मन को भाव बिभोर करती है , जब भी कभी देखती हूँ इन पलों को याद आती है माँ की गोद और पापा के कंधे जहाँ से मेरी दुनियाँ सुरु हुई थी एक तरफ जहाँ माँ की गोद में वो प्यार मिला जिसकी में ज़िन्दगी भर कर्जदार हूँ और एक तरफ पापा का वो दुलार मिला जिसे में कभी खोना नही चाहती हूँ।
आइये आप भी अपने यादों को ताजा कीजये इस कविता और मेरे मन की बातों के साथ।
''दियो- दियो बोज्यू गड़ुए की धारा मेरी ईजू ना रो नि मारा डाडा वे''
कविता
मीनाक्षी बिष्ट
( सर्वाधिकार सुरक्षित )


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