सभी मित्रो को फूल देई छमा देई की हार्दिक शुभकामनाएं !
''फूल देई छमा देई, जतु कै दीछै उतुकै सही'' के त्यार और अपने बचपन की बात करू तो बुहत यादें जुडी है। सुबह जल्दी उठकर नहा कर कुछ नए जैसे रंग बिरंगे कपडे पहनकर फिर आड़ू के पेड़ में चढ़कर बुहत सारे फूल तोडना या फिर घर के बगल में पीले प्योली के फूल तोड़कर अपनी थाली को रंग बिरंगी सजा कर निकल पड़ता अपने गाँव की तरफ और ये सोचते -सोचते कौन कितने पैसे देगा बस मुझे सब कुछ अच्छा लगता था जो उस समय चावल की जगह झुंगर देते थे बुहत गुस्सा आता था क्यों की मुझे उस समय झुंगर का भात और झोली बिल्कुल पसंद नही थी।
में वैसे पूरा गांव तो नही घूमता था क्यों की मुझे नजर लग जाने वाली ठहरी तो अपने बिरादरों के यहाँ और कुछ लोगो के यहाँ से अपनों थाली को भर लाता था एक तरफ गुड चावल और कोई पैसे दे तो उसके यहाँ जरा ज्यादा फूल खेल लिए क्या करू बचपन हुआ ही इस तरह का घर आकर ईजा को कहने वाला हुआ ईजा मीठा हलवा मत बनाना तो ईजा कहने वाली हुई च्यला त्यारक दिन मिठ बंडू फिर कदिने आघिल पिछाड़ी बड़े दुव्ल त्यर लिजी।
दैणी द्वार भरी भकार तुम्हर देई बारमबार।।
नमस्कार
मित्रों हमारे देव भूमि में त्यौहारो को ऋतुओं के अनुसार मनाया जाता हैं ! यह पर्व जहाँ हमारी संस्कृति को उजागर करते हैं वहीं पहाड़ की परंपराओं को भी कायम रखे हुए हैं।
इस त्योहार का सीधा संबंध प्रकृति से है इस समय चारों ओर छाई हरियाली और नाना प्रकार के खिले फूल प्रकृति के यौवन में चार चांद लगाते हैं हमारी परम्परा में चैत्र माह से ही नव वर्ष शुरू होता है।
इस नव वर्ष के स्वागत के लिए खेतों में सरसों खिली है तो पेड़ों में फूल भी आने लगे हैं। चैत्र माह के प्रथम दिन बच्चे लोगों के घरों में देई फूल और चावल डालकर सुख-शांति की कामना करते हैं।
फिर उन्हें परिवार के लोग गुड़, चावल व पैसे देते हैं। और सायंकाल को चावल का हलवा भी बनाया जाता है।
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
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