पर उस घर में रहने वाला कोई नही है।।
जो हमारे पूर्वजो ने १०० साल पहले बनाया था।
जो हमारे पूर्वजो ने १०० साल पहले बनाया था।
आज भी बुबु लाठी के सहारे चलते है।
पर बगल में चलने वाला कोई नही है ।।
पर बगल में चलने वाला कोई नही है ।।
आमा घुटने के बल आज भी पटागण लिपति है।
पर उसमें खेलने वाले नाती नतिनी कोई नहीं है।।
पर उसमें खेलने वाले नाती नतिनी कोई नहीं है।।
वो गोठ धेली के ऊपर आज भी टोकरी (डाला ) टांगा है।
पर उसमें मड़ुआ , धान , झुंगर लाने वाला कोई नही है।।
पर उसमें मड़ुआ , धान , झुंगर लाने वाला कोई नही है।।
वो बंजर खेत आज भी राह देखते है किसी की आने की।
पर उसमें हल जोतने वाला कोई नही है।।
पर उसमें हल जोतने वाला कोई नही है।।
वहाँ आज भी हम ज्यों का त्यों वैसी ही छोड़ आये जो हमारे पूर्वजो ने सेहज कर रखा था बस उसको देखना वाला कंधे में बेग लटका के शहर की तरफ आ गए है। रह गए तो बस ये बीरन घर और वो सूखे खेत खल्यान वो पंग डंडी जहाँ हम अडू , या लुकीछुपी खलते थे।
कुछ कमियाँ हम भी है हम कभी अपने हक़ के लिए लड़े नही बस बड़ो का ये सुनकर चुप हो जाते हम तो सिद्ध साध आदिम भया आज यही बात सबको को खलती है शायद अपने हक़ के लिए एक जुट होकर लड़ा होता तो इस तरह परदेश में बैठ कर किसी की नौकरी नही कर रहे होते और ये लिखते- लिखते आँसू नही बहाने पड़ते।
कविता - श्याम जोशी !
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
No comments:
Post a Comment