Thursday, March 12, 2015

ये मन ले चला आज मुझे पहाड़ियों की ओर

कभी -कभी ये मन भी उड़ते -उड़ते शहर से पहाड़ो की तरफ निकल पड़ता है। कुछ अपने चेहरों के बीच जिनको छोड़ तो आये वहाँ पर उनकी यादें हमेशा पास होती है।

कभी तो ये लगता है कोई आवाज देकर बुला रहा हो ख़ूबसूरत वादियों में जैसे बचपन का बिछड़ा हुआ कोई दोस्त जो लुक्का छिप्पी खेलते हुए दूर निकल आया और किसी चीड़ के पेड़ के पीछे खड़ा आज भी आपका इंतज़ार कर रहा हो कि आप आयें और उसे ढूंढ के जोर से बोलें पकड़ लिया चल अब तेरी बारी है।

ये मन ले चला आज मुझे पहाड़ियों की ओरकितना सुकून था जब हम उन बड़ी -बड़ी पहाड़ियों में खड़े होकर अपने आप अपनी फोटो खीचते फिर एक दूसरे को देख कर खूब हसते और दूर तक निकल जाते अपनी ही धुन मैं और वहाँ से नीचे देखो तो जहाँ तक नज़र जाती है, सिर्फ़ हरा भरा जंगल दिखता है, अंतहीन जैसे धरती सिमट कर बस इतनी सी हो गयी हो इस हरियाली के परे कुछ भी नहीं और दूर जाकर एक सिरे पर शिव जी का मन्दिर भी असीम शान्ति घंटियों की आवाज़ और दूर एक झरना जो बहुत शोर मचाता हुआ काफ़ी ऊँचाई से गिरता हुआ मन को शान्ति दे रहा हो।


श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )

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