क्याप-क्याप जैसा होना लगा है।
अल्झि-अल्झि जैसी गयी हूँ ।।
अणकैसे अणकैसे जैसा सोचती हूँ।
आतव पताव जैसा मुह से निकल जाता है।।
कही जाती हूँ तो मुनव घूमने जैसा लगता है।
मणी- मणी कपावम जैसी पिड़ चितायी देती है।।
रत्ति टैम को कम- कम जैसा लगता है।
जैसे ही ब्याव पड़ती है बकायी जैसा हो जाता है ।।
क्या करू मुझे तो अब अणकसी जैसा हो जाता है।
कभी मणी- मणी तो कभी सकर -सकर जैसा हो जाता है।।
तुम को जब देखती हूँ माल धारम को जाते हुए।
तो में कभी भ्यार कभी भीतेर नाचने जैसी लगती हूँ।।
अरे परुली मुझे लगता है तुझे प्यार नही मसाण जैसा लग गया है।
रचना
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
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