Friday, August 7, 2015

ग्वाला वाला बचपन

आज कल पहाड़ों में कुछ इस तरह का नजारा देखने को मिलता है, जो बेहद खूबसूरत लगता है हरे भरे मैदान और  कही गाय चरती  हुई नजर आती है तो कही कोई पहाड़ी महिला घास काटते हुए दिखती है।

इस तरह के द्रश्यो को देखकर अपना भी बचपन याद आ जाता है कभी हम भी इसी तरह गायों  को लेकर जंगल चले जाते थे  कही आस पास कोई खेत में ककड़ी की बेल नजर आती तो टूट पड़ते थे चाहे वह ककड़ी का फूल भी नही झड़ा होता था उसे ही खा जाते थे।

almora तब के हमारे खेल भी बड़े अनोखे होते थे तब ना कोई   मोबाइल होता था  फिर भी हमारे वो दिन बड़े अच्छे होते थे कोई कनिस्टर को काट कर बजाने वाला बना के बांस की लकड़ी से बजाते थे और वही निगाव की बसीं भी या फिर गदुवे की बेल की पिपरी बना के बजाना कही धार में बैठ कर या फिर सब मिलकर जागर लगाना सबको अलग -अलग प्रकार के देवता बना के नचाना किसी एक को दास भी बनाया जाता था।


इन सब खेलों में मेरा पसंदीदा खेल हमेशा लुका छुपी रहा मुझे बड़ा आनंद आता था इस खेल को खेलने  में हालंकि मैने बहुत शरारतें भी करी है।


हिटो दाज्यू  न्हे जुले हरियाली डानो मां। 
फिर आपण बचपन के याद करले उन डाना मैं।।   


आप भी अपनी बचपन की यादों को साँझा करएगा जो आप ग्वाला जाकर करते थे ।


श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )

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