चलो ढूंढते है वो बसन्त के रंग।
खो चुके है हमारे आत्तितो के संग।।
न ही अब वो रंग रहा न ही बसंत
शायद हम बदल चुके है या हमारा मन
बचपन कितना प्यारा था होती थी सबके मुँह पर मुश्कान
माँ पहना देती थी पीले वस्त्र और गले में लटका देती रुमाल ।।
जाने कहा खो सा गया वो बचपन वो अल्हड़पन ।
हम बदल गए हम बड़े हो गए भूल गए बचपन ।।
आज फिर से ढूंढते वो शाम मैदान जहाँ होते थे हम एक सब साथ
गगन के उन रंगों को छूना चाह्ते एक दूसरे के कंधे पे रखकर हाथ ।।
रचना
श्याम जोशी चंडीगढ़ - अल्मोड़ा
खो चुके है हमारे आत्तितो के संग।।
न ही अब वो रंग रहा न ही बसंत
शायद हम बदल चुके है या हमारा मन
बचपन कितना प्यारा था होती थी सबके मुँह पर मुश्कान
माँ पहना देती थी पीले वस्त्र और गले में लटका देती रुमाल ।।
जाने कहा खो सा गया वो बचपन वो अल्हड़पन ।
हम बदल गए हम बड़े हो गए भूल गए बचपन ।।
आज फिर से ढूंढते वो शाम मैदान जहाँ होते थे हम एक सब साथ
गगन के उन रंगों को छूना चाह्ते एक दूसरे के कंधे पे रखकर हाथ ।।
रचना
श्याम जोशी चंडीगढ़ - अल्मोड़ा