Tuesday, May 19, 2015

ऐ जाओ म्यर परदेशी घुमी आला पहाड़ा


हिट परदेशियों घूम आला म्यर पहाड़ा।
देख्यि आला उच्च नीच डाना काना।।

आज जुले भौ जुले नि कोव।
आज जाओ म्यर पहाड़ा घूम आओ।।

अल्माड़ा बे घुमला उच्च डानियोमा।
नैनीताला बे देखुला ठुल ठुल ताला।।

गहतक डुबका खाला भटटी राजड़।
भांगकी खटे खाला हरी काकड़क रैत।।

हिट परदेशियों घूम आला हिट परदेशियों घूम आला म्यर पहाड़ा घुमी आला।


श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )

Tuesday, May 12, 2015

कदुक रंगील म्यर पहाड़

कदुक भल कदुक रंगील म्यर पहाड़।
डान कान गों गाड़ छ या बड़ महान।।

ताजी हाव् याकि ठंड ठंड पाणी।
जाग जाग के पाणिक नोऊ यति।।

जेठ्क मैहिणं काफुवकि बहार।
दागड़ में हिसावुक मिठ मिठ मिठास।।

ह्यूनम घाम भै बैर निमुक भल स्वाद लागू।
ब्याउ के भांग खिति गडरिक साग स्वाद न्यार हुँछू।।

हिटो रे दादाओं हिटो रे भुलियो न्हें जानु पहाड़।
वे छे हमर गों गाड़ उतकी छी हमरी पहचाण।।

श्याम जोशी अल्मोड़ा ढेली
( सर्वाधिकार सुरक्षित )

Monday, May 11, 2015

गड़ुए की धार

कुछ मनभावन रस्मों से होता है विवाह अपने पहाड़ो में।
घर परिवार ही नही पूरा गांव लगता है निबाह में।।
एक ऐसी ही रस्म है - वो
गड़ुए की धार।।
मानों सिमट गया हो उसमें माँ की ममता।
पिता का दुलार ,

एक नन्हीं सी कली ना जाने कब ईतनी बड़ी हो जाती है।।
छोटी- छोटी ख्वाहिशों के लिए जिद करके रोने वाली।।
सबकी ख्वाहिशों के समेटे आज।।
कुछ नए रिश्तों में बधने को बैठ जाती है।।
मंडप में,

माँ- बाबू वो जो एक आँसू भी ना गिरने देते थे ।।
उस गड़ुए की धार के साथ आज- मानो।।
सब कुछ बहाने को है तैयार खड़े होते।।
और लड़की देखती है तो बस उस ।।
गड़ुए की धार को,

गड़ुए की धार तो सबको दिखती है ।।
बस नही देखती है तो मासूम के आँसुओ की धार।।
जो निरंतर बहते रहते है उसके पिछोड़े की आड़ में
कुछ मनभावन रस्मों से होता है ।।
विवाह अपने पहाड़ो में,

कुछ ऐसी ही रस्मे है हमारे पहाड़ो में जो मन को भाव बिभोर करती है , जब भी कभी देखती हूँ इन पलों को याद आती है माँ की गोद और पापा के कंधे जहाँ से मेरी दुनियाँ सुरु हुई थी एक तरफ जहाँ माँ की गोद में वो प्यार मिला जिसकी में ज़िन्दगी भर कर्जदार हूँ और एक तरफ पापा का वो दुलार मिला जिसे में कभी खोना नही चाहती हूँ।

कविता
मीनाक्षी बिष्ट
( सर्वाधिकार सुरक्षित )

Friday, May 8, 2015

याद आये बचपन के वो दिन



जून का महीना जहाँ दोपहर की गर्मी और काफलो का पकना पर करे भी तो क्या करे हम हुए बच्चे  बड़े बड़े जंगलो में हमें नही भेजा जाता था बस ईजा लाने वाली ठहरी जब से काफल पकने शुरू होते थे बस   ईजा से  कचकचाट् लगाने वाले हुए वो ''ईज कधिन जाली क सबुल काफूव ले खे हली हमुल आयि ले चाखि नि रे'' ईजा के पास समय के वजह से जाने का टाइम नही लग पाता फिर भी ईजा का मन हुआ एक दिन चली जाती थी एक टोकरी लेकर झोले में या पोलिथिन में काफल का स्वाद बिगड़ जाता है सारा रस निकल जाता है। 

उस दिन हम दोहपहर में सोते भी नही थे सुबह से तैयारिया चल रही होती थी लहसून का नमक पीस के रखना कब ईजा आये और कब काफलो पर टूट पड़े जब काफलों की टोकरी सामने होती थी खुशी के मारे उछल पड़ते थे। 
kafal


वही एक फल जो होता तो बेहद स्वाद पर इसको तोड़ने में बड़ी मुश्किल होती है हिसालू  खाने के लिए खुद  ही जाते थे घर वाले  कहते थे सुबह सुबह खाने चाहये दिन में खाने से बीमार हो जाओगे  और हम सुबह सुबह चले जाते थे गाड़ की तरफ हिसालू खाने पर खाते कम थे कांटे ज्यादा चुब जाते थे फिर भी खाना नही छोड़ते थे। 

आज जब भी बचपन की याद आती है तो इन बातो को याद करके मन बड़ा भाउक हो उठता है। 

श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )