जून का महीना जहाँ दोपहर की गर्मी और काफलो का पकना पर करे भी तो क्या करे हम हुए बच्चे बड़े बड़े जंगलो में हमें नही भेजा जाता था बस ईजा लाने वाली ठहरी जब से काफल पकने शुरू होते थे बस ईजा से कचकचाट् लगाने वाले हुए वो ''ईज कधिन जाली क सबुल काफूव ले खे हली हमुल आयि ले चाखि नि रे'' ईजा के पास समय के वजह से जाने का टाइम नही लग पाता फिर भी ईजा का मन हुआ एक दिन चली जाती थी एक टोकरी लेकर झोले में या पोलिथिन में काफल का स्वाद बिगड़ जाता है सारा रस निकल जाता है।
उस दिन हम दोहपहर में सोते भी नही थे सुबह से तैयारिया चल रही होती थी लहसून का नमक पीस के रखना कब ईजा आये और कब काफलो पर टूट पड़े जब काफलों की टोकरी सामने होती थी खुशी के मारे उछल पड़ते थे।
वही एक फल जो होता तो बेहद स्वाद पर इसको तोड़ने में बड़ी मुश्किल होती है हिसालू खाने के लिए खुद ही जाते थे घर वाले कहते थे सुबह सुबह खाने चाहये दिन में खाने से बीमार हो जाओगे और हम सुबह सुबह चले जाते थे गाड़ की तरफ हिसालू खाने पर खाते कम थे कांटे ज्यादा चुब जाते थे फिर भी खाना नही छोड़ते थे।
आज जब भी बचपन की याद आती है तो इन बातो को याद करके मन बड़ा भाउक हो उठता है।
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
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