Friday, October 30, 2015

पलायन का दर्द

उत्तराखंड पहाड़ के लोगों का पलायन करना ये एक पहाड़ के लिए मुख्य समस्या बनती जा रही है लोगों को पूरी सुख सुविधाए उपलब्ध नहीं होने के कारण पलायन हो रहा है अधिकतर पहाड़ में (जैसे अच्छी शिक्षा रोजग़ार अच्छी चिकित्सा अच्छा रहन सहन आदि) पहले भी लोग कई पलायन कर चुके है जो पहाड़ उत्तराखंड को पूरी तरह छोड़ चुके है शहर विदेश जा कर बस चुके है।
उनके बच्चों उनकी परवरिश वहीं की है पर अपने उत्तराखंड का वो कुछ भी नहीं जानते की उनका कुछ उत्तराखंड से ही रिश्ता जुड़ा हुआ है कही न कही और अब जो लोग पलायन कर रहे है उनमे से कुछ रोज़गार बेहतर शिक्षा सुख सुविधाओँ के विवश शहर में रहते है ठीक है शहर में रहना पर पूरी तरह अपना गावं घर पहाड़ को नहीं छोड़ना चाहिए लोग अन्य भाषाओँ के दूर दूर से विदेशों से टुरिस्ट बनके हमारे उत्तराखंड आते है घूमने को और होटलों में आके रुकते है क्योँ की उनकी मज़बूरी है।
हमारी कैसी मज़बूरी शहर में बसे अच्छी बात पर अपने गावं के घर को क्योँ भूल गए जो टूट चुके किसी के तो नामोनिशान तक मिट चुके पूरी तरह सब बंजर पड़ चुके इसलिए पूरी तरह पलायन नहीं करना चाहिए अपने गावं के घर जाना चाहिए जिसका नहीं है वो बनवाए और उत्तराखंड जब जाए टूरिस्ट बनके होटल में नहीं अपने घर गावं जाए रहने को इससे घर गावं आबाद ही रहेंगे और इस समस्या पलायन के निवारण हेतू जो कोई भी शहर में रहते हुए अच्छी शिक्षा अच्छे कार्यलयो अच्छे पद पे कार्यवृत अच्छी जानकारी रखते हो अच्छी योजनाएं बना सकते हो वो यदि अपने पहाड़ के लिए कुछ करना चाहते है।
भले शहर में रहते हो पर उनको लगता है की वो कुछ कर सकते है उत्तराखंड के विकास के लिए तो उसे आगे बढ़ के पूरी तरह से आना चाहिए जिससे उनकी कोशिशों के जरिए बेहतर सुख सुविधाएं रोज़गार अच्छी शिक्षा चिकित्सा सब वहां के लोगों को उपलब्ध हो सके जिससे आगे लोग पूरी तरह पलायन करने की कभी न सोचें इसलिए कहीं भी रहिए चाहे शहर विदेश उत्तराखंड जाते रहिए अपने खुद के घर गावं पहाड़ अपने बच्चों को भी हमेशा याद दिलाए दिखाए की उनका घर पहाड़ उत्तराखंड ही है जिनसे हम जुड़े हुए है और इस तरह उत्तराखंड का पूरी तरह से नहीं तो कुछ हद तक पलायन बंद हो सकता है और उत्तराखंड हमेशा आबाद रह सकता है !!
धन्यवाद !!
लेख
दीपा कांडपाल (गरुड़ बैजनाथ)
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

कुछ यादें बचपन की


याद है वो अपना बचपन जब स्कूल की गर्मियों की छुटियाँ पड़ती थी अपने उत्तराखंड घर गावं पहाड़ जाते थे तब हमें पूरी छुटियाँ वहाँ बिताने को अच्छा लगता था छुटियाँ कैसे बीतती पता तक नहीं चलता था वहां पे बचपन में गावं के बच्चे जो हमारे साथी हुआ करते थे तो जब हम अपने घर गावं जाते तब वो बच्चे साथी भी वहां रोज़ आ जाया करते थे तब हम ख़ूब मज़े  मौज़ मस्ती करते थे खेल खेलते थे।

उस वक़्त हम सब बच्चों को कुछ न कुछ खचर पचर करने को तो चाहिए ही होता था इसलिए तब हम सब मिल के मन बहलाने के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते थे कह सकते है उसे हमारा बचपन वाला गावं वाला बच्चों का खेल  क्या करते थे हम सब जब किसी की शादी होती थी तब घर पे दुल्हन आती है उसके बाद एक रसम होती है मुकुट वाली जो पानी के धारे पे की जाती है दुल्हन को लेके जाया जाता है वहां पे तो शादी वाले मुकुट रख दिए जाते है उसे हम बच्चे पलान बनाके चुरा लिया करते थे जो दिखने में बेहद सुंदर लगते थे फिर उन्हें अपने अपने सिरों पे बाँध के खेलते थे।

और एक हम वो भी करते थे एक से बोलते तू दूल्हा बनाके लाना अपने घर से हम दुल्हन और फिर उनकी शादी ब्याह रचाएँगे तब पुराने कपड़ो से हम दूल्हा दुल्हन बनाते थे और दुल्हन की डोली केले के पेड़ के बहार के छिकल से तैयार की जाती थी उसको सजाया जाता था बिलकुल डोली के आकार का फ़िर दूसरे साथी के घर जिसने दूल्हा बनाया होता था उसमें दुल्हन को बैठा के विदा करते थे उसके घर एक खेल तो दूल्हा दुल्हन वाला ये हो गया।

दूजा खेल एक वो होता था जब रोपाई लगती खेतों में उसमें पानी के अंदर हम भी कूद पड़ते थे जैसे गावं की महिलाएं करती वही कोशिश हम भी करते उसमें भी मस्ती करते थे जब चाय बनके खेत पे आती वो भी बाटते वो जो गोला फोड़ते न शुरु में खेत में वो हमें भी मिले करके रोपाई वाले स्थान पे सबसे पहले पहुंच जाते थे बड़े मज़े करते थे और एक कही पे खाली जगह पे हम थोड़ा सा बिलकुल छोटा सा खेत जैसा बनाते थे फिर उसमे पानी डालते धान डालते कहते जब दोबारा गावं आएंगे तो हमारी फसल भी ऊग जाएगी।

जो गावं में बड़े पत्थर होते न उनके ऊपर कुछ काई जैसी जमीं होती है जो अभी भी जमी होती है काली काली सी उसको घिस के पानी डाल डाल के मेहँदी रचाते थे अपने अपने हाथों में हम सब मेहँदी की ही तरह लाल भी हो जाता था उसका रंग और एक भटुलि करके ज़मीन से छोटी छोटी घास के वहां पे बिलकुल छोटा सा फल खाने को निकलता है उसे हम बच्चे खोजते थे की कहाँ दिखती उसकी जड़ फिर जब दिखी तो खोदा मिल जाती थी और उसे खाते थे और जंगलो में काफल ढूंढने निकल पड़ती थी पूरी बच्चों की टोली तब एक ऊपर चढ़ता दूजा निचे रहता ऊपर से हांग तोड़ तोड़ के निचे फेंका करता था ऊपर चढ़ा साथी इकठे भी करता था वो हम सबके लिए जिसे घर आके नमक सरसों के तेल में मिला के खाते थे।
बड़ा ही मज़ा आता था ऐसे उटपटांग बच्चों वाली मस्ती हरकतों खेलों में अपने बचपन के दिनों में गावं घर में तब न वहां टीवी होता था न लाइट तो इन्हीं सब से अपना मनोरंजन करते थे तब न धूल से परेशानी थी न कीचड़ से जैसे मर्ज़ी रहो न किसी की चिंता न फ़िक्र सिर्फ़ हम बच्चे मस्ती वाले सच क्या मस्त जिंदगी हुआ करती थी वो बचपन की जो अब भी यादों में याद बनके अब भी ताज़ा है !!


लेख
दीपा कांडपाल (गरुड़ बैजनाथ)
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

लुप्त होते नौले

हमारे घर उत्तराखंड पहाड़ में पानी के नौले हुआ करते थे अब भी है पर जिनकी दुर्दशा बेकार  हो चुकी है अपने अपने घरों से सुबह शाम पानी के लिए नौले की तरफ़ हाँथ में पानी की बाल्टी लिए चल पड़ती थी सारे गावं की महिलाएँ क्योँ की कुछ साल पहले तक पानी नौले धार से भरा जाता था सुबह हो या शाम सब महिलाओँ का नौले के सामने मिलना हो ही जाता था धीरे धीरे अब गावं में घर घर पानी के लिए नल लग गए पानी बिकने लगा बोतलों में बाज़ारों में अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा  जो नौले के सामने पानी भरने के लिए एक दूसरे का सुबह से शाम तक मिलना हो जाया करता था वो सब बंद हो गया क्योँ की पानी जो मिलने लगा घर घर गावं के नौले अब सुने पड़ चुके है वो सुख चुके है उनकी धारे सुख चुकी है !

नौला वो होता जो दिखने मैं छोटा सा मंदिर जैसा बना होता है काफ़ी सुंदर सुंदर आकर्तियों के भी बनायें होते नौले जिसमें गऊ की आकर्ति विशेष बनी रहती है उसके मुँह से एक धार जैसी पानी की निकलती है जिस्से पानी भरने में बेहद सुविधा होती है नौले में प्राकर्तिक रूप से जल भरा होता है यह निर्मल जल का प्राकर्तिक स्त्रोत है नौले का जल बेहद ही मीठा होता है !

समय के साथ गावं में जल तो आया नलों में पर पानी की समस्या और ज्यादा बढ़ गई क्योँ की अब नलों में आवश्यकता अनुसार उतनी मात्रा में जल उपलब्ध नहीं हो पा रहा हैं  वो नौले जिनसे पानी भरा करते थे वो सुख चुके गावं के लोगों ने नौले से पानी भरना बंद कर दिया उस स्थान को पहले साफ़ सफाई का बेहद ख्याल रखा जाता था उसे पूजनीय स्थान भी माना जाता था पर उनकी देख रेख करना छोड़ा लोगों ने तो वो उनकी धार टूट गए सुख गए और क्योँ की नौले धारे सूखने की एक मुख्य समस्या यह भी है की जंगलों में जिन पौधों के होने से जल बनता था चीड़ बॉस देवदार आदि वृक्ष उनकों लोगों ने अपनी जरूरतों के लिए काट दिया या जंगलो को जला दिया जिस्से भूमि में नमी कम पड़ गयी जल की मात्रा खुद कम हो गयी  जिस कारण से नौले धार में जो प्राकर्तिक रूप से जो जल बनता था वो अब पूरी तरह से खत्म होने की कगार में आगया हैं यदि इन नौले धारें जल के प्राकर्तिक स्त्रोत को बचाना है तो वन विभाग द्वारा अधिक से अधिक संख्या में जंगलो में पेड़ पौधें लगाने होंगे और जंगलों को हर तरह बचाना होगा उनकी देख रेख करनी होगी जिस्से हम सब आने वाले सभी जल के भीष्ण संकट से बच सके  !!

धन्यवाद !!
लेख 

दीपा कांडपाल (गरुड़ बैजनाथ)

Monday, October 26, 2015

में छु फौजी पहाड़ी

shyam


आज एक  फौजी घर से विदा होकर निकल पड़ता है अपनी नौकरी के लिए दूर लेहल्दाख की पहाड़ियों की तरफ कंधे में काफी बड़ा बेग लटकाये जब वहाँ पहुँचता कुछ तो अपने जैसे लगते है कुछ अन्जान उन सभी चेहरों  को जानना भी है और पहचानना भी है।

आज अकेला बैठा वह फौजी जिसे देश की रक्षा के लिए भेजा है अपनों से दूर जहाँ टेलीफोन की सुबिधा भी बड़े मुश्किल से है काफी निचे आना पड़ता है बात करने के लिए आज फौजी की अंतरआत्मा बेचैन हो उठती है।

सामने एक पेड़ पर कौवा बैठा हुआ है उसे देखरकर उसे अपनी घर की याद और ज्यादा आने लगी है कहते है जब हमारे घरो में कौवा घर के आस पास कॉव काँव करे तो कोई मेहमान आने वाला होता है मतलब एक संदेशवादक  भी कहा जाता है।

ऐ कौवे यहाँ से उड़ कर चला जा मेरे पहाड़ हिमालय के उस पार जहाँ मेरा देश मेरा गांव मेरा घर है मेरा मुल्क देखकर आना सारे पहाड़ को कितना सुन्दर है और मेरे घर भी जाके आना जहाँ घर के पास काफ़ी  पुराना बृक्ष है आम का वही मेरे घर की निशानी है। और घर आँगन में एक गागर होगी पानी की भरी हुई पानी पीकर आना और सामने बांस की डालिया होंगी काफी सारी वहाँ बैठ कर देखना मेरी ईजा मेरे बोज्यू  और मेरी भूली क्या कर रही फिर मुझे यहाँ आकर बताना।

मेरी ईजा रोज मेरा रास्ता (बाट ) देखती रहती है और मन ही मन कहती है मेरा (च्येला ) परदेश से घर आएगा  और अपने दुःख सुख मुझे बताएगा पर तू मेरी ईजू को कह देना इस साल मुझे छुट्टी  नही मिली में अगले साल जरूर आऊंगा और मेरे  लिए पोटली (पुन्तर ) बना के अखरोट रखना जिन्हें में बचपन में तेरे काठ के बक्से से चुरा कर खा जाता था।


दुतिया राखीबंधन में भुलु तेरी बड़ी याद आती है क्या करू दो रोटी के बेणी कारण तेरे पास नही आ सकता याद सब रहता है मेरी बेणी को कहना इस साल लड़ाई लगी है तेरा दादु अगले साल जरूर आएगा तेरे से राखी बँधवाने तू फिकर ना करना जल्द ही बेणी तेरे घर द्वार भेट्ने आऊंगा।

लेख
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )

Friday, October 23, 2015

लोट आओ वापिस बुलाता ये पहाड़

घर तो आज भी वही उसी तरह पड़ा है।  
बस दरवाजे खोलने वाले की जरूरत है।। 

गुड वाली चाय तो  आज भी बनती है।  
पहाड़ो में बस पिने वाली की जरूरत है।।  
  
झोली भात आज भी बनता है मेरे घर के चूल्हे में।  
बस सपोड़ा सपोड़ करने वाली की जरूरत है।।  

मड़ुवे की रोटी बनाने वाली ईजा वही रहती है
बस  उसे खाने वाले की कमी खलती है।। 

झुंगर आज भी बोया जाता है खेतो में। 
बस उसे ओखल में कूटने वालो की जरूरत है।। 

खेत खल्यान पहाड़   आज भी उसी तरह खड़े है जैसे सालो पहले थे बस जरुरत है तो उनसे जुड़ने की हमको जो छोड़ आएं हम अपनी मात्र भूमि को वह बुला रही है। 

रचना 
श्याम जोशी  (अल्मोड़ा )

Tuesday, October 20, 2015

गंगोत्री धाम

गंगोत्री धाम का नाम तो सुना ही होगा आप लोगो ने..अरे वही गंगोत्री धाम.. जो अपने ही उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी मैं स्थित है..गंगोत्री धाम उत्तर दिशा के चार पावन धामो मैं से एक धाम है.. माँ गंगा जी यही पे प्रकट हुई थी..भक्त भागीरथ ने अपने पूर्वजो पितरो के संस्कार (उद्धार) के लिए कठोर तपस्या करके माँ गंगा जी को यही पे प्रकट किया था..जो की गौमुख के आकार की गुफा से निकलती है.. इसे भागीरथी नदी भी कहते है। गंगोत्री उत्तराखंड का बेहद ख़ूबसूरत धाम..जहा कुदरत ने इतनी ख़ूबसूरती बिखेरी है.. जो मन को छूती है..यहां प्राकृतिक दृश्यों में देवदार के ऊंचे वृक्ष..गंगा के प्रवाह का स्वर.. शीतल बर्फीली हवाओं के झोंके और विशाल और ऊंचे पर्वत मन को मोहित आनंदित करते हैं। शहर के शोर शराबे से दूर जब इस धाम पे जाओ इसकी हरियाली अपार शांति देती है.. इतने सुन्दर मनोरम दृश्यों की ख़ूबसूरती जो आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति देती है.. गंगोत्री जी का शीतल पावन जल जिसमे लोग स्नान करके अपने को पवित्र महसूस करते है..गंगा माँ के इस धाम की भव्यता देखकर मैं (हम सब) मंत्र मुग्ध् हो गए..मित्रो अब इससे जयादा क्या बताऊ आपको मेरे शब्द भी कम पड़ेंगे..मुझे लगा जीवन का आनंद जीना है । ऐसे ही धामो मैं जाया जाए और धाम यदि अपने उत्तराखंड का हो तो फिर पीछे क्योँ ये तो हमारे लिए हम सबके लिए स्वभाग्य की बात है की ऐसे धाम है हमारे उत्तराखंड मैं जिनको देखकर हम जीवन मैं परम आनंद की अनुभूति प्राप्त कर सकते है। लेख दीपा कांडपाल ( सर्वाधिकार सुरक्षित )
गंगोत्री धाम

लड्डू गोपाल का भोग माखन

लड्डू गोपाल का भोग माखन आप सभी मित्रों को जन्माष्टमी पर्व की बेहद बेहद हार्दिक शुभ मंगलकामनाएं ! मित्रों आज हम यहाँ पे..लड्डू गोपाल के प्रिय भोग की बात करेंगे..वैसे तो उनको प्रिय..हर वो व्यंजन है..जो भक्त अपने भाव स्नेह से बना के खिलाता है..जन्माष्टमी पे भोग के लिए कई प्रकार के स्वादिस्ट व्यंजन बनाये जाते है..लड्डू गोपाल के लिए हमेशा से यही सुना उनका प्रिय भोग..दूध माखन ही रहा ! माखन वो माखन..जिसको पाने के लिए लड्डू गोपाला ने..अपने बाल रूप में गोपियों की कई मटकियाँ फोड़ी.. कई घरों में माखन खाने के लिए..अपने मित्रों संग टोली बनाकर..माखन की चोरी करी..लड्डू गोपाला ने अपनी माँ यशोदा को भी खूब सताया.. इसी माखन के कारण.. इसी माखन चोरी से लड्डू गोपाला को..माखन चोर के नाम से भी जाना जाने लगा ! माखन जो भोग लड्डू गोपाल को प्रिय भोग है..वो सफ़ेद बेहद मुलायम होता है..दूध में लगने वाली मलाई (क्रीम) से बनता है.. माखन लड्डू गोपाला का सदेव ही..विशेष भोग रहा..गोपाला माखन खाते थे..तभी तो वो खुद माखन जैसे कोमल थे.. उनको पकड़ने प्यार करने के लिए..उन्हें गोपियाँ माखन का ही झांसा देती थी ! अपने उत्तराखंड घर (गावं) में..बचपन में बेहद माखन खाया..रोटी पे रख रख के..माखन को उत्तराखंड में हमारे यहाँ नौड़ी कहके बोलते है..घर (गावं) में बचपन में ही क्या ..आज तक वहां की महिलाएं..घर पे ही माखन निकालती है..घी बनाने के लिए..और स्वाद अब भी हमेशा से वही स्वादिस्ट होता है..माखन को देखते है तो रहा भी तो नहीं जाता ! इसलिए मेरी माँ (ईजा) आज भी..शहर में रहते हुए दूध की खूब मलाई जमा करके..उसको मथ के आज भी हमारे लिए..कभी कभार माखन निकाल ही देती है..और माँ का बनाया हुआ माखन तो.. वैसे ही इतना मीठा स्वादिस्ट हो जाता है..जैसे माखन का नाम..क्योँ की..माखन में ही माँ शब्द समाया हुआ है..इसलिए तो माखन लड्डू गोपाल का प्रिय भोग कहलाया है !! धन्यवाद लेख (दीपा कांडपाल) (सर्वाधिकार सुरक्षित )

पाताल भुवनेश्वर

पाताल भुवनेश्वर गुफ़ा का नाम तो सुना ही होगा.. अरे वही.. जो उत्तराखंड के गंगोलीहाट पिथौरागढ़ (जिला ) में स्थित है..कइयों ने सुना होगा देखा भी होगा पर जिन्होंने नहीं सुना.. उन्हे मैं आप सब की जानकारी के लिए आज यहाँ पे अपने देखे सुने अनुसार साधारण से शब्दों में लिख के बया करुँगी।
पाताल भुवनेश्वरपाताल भुवनेश्वर गुफ़ा बेहद प्राचीन है जो हमारे उत्तराखंड के गंगोलीहाट पिथौरागढ़ (जिला ) में स्थित है.. जिसका वर्णन स्कंद पुराण में भी किया गया है.. इस गुफ़ा में मानो साक्षात् शिव का वास हो हर शीला (पत्थर) कुदरत के होने का प्रमाण बताती है.. एक रहस्यमई अधभुत अतुल्यनीय आश्चर्यजनक गुफ़ा.. गुफ़ा में मानों साक्षात् भगवान शिव की नगरी समायी हो इसलिए इसे पाताल भुवनेशवर शिव गुफ़ा मंदिर भी कहते है।

यहाँ प्रकति भी अपनी ख़ूबसूरती को बया करते नहीं थकती..प्राकर्तिक दृश्यों की भरमार.. पहाड़ की सुन्दर वादियाँ..बहती नदियां उनका स्वर.. ऊचे चीड़ के वृक्ष..मौसम सुहावना चारों और हरी भरी हरियाली..इन्ही प्राकर्तिक दृश्यों के बीच बसा कुदरत का स्वयं निर्माण किया पाताल भुवनेश्वर मंदिर..गुफ़ा में पहुँचने पर वही सारा सामान बहार ही जमा कर दिया जाता है..अंदर जाने के समय एक मार्गदर्शक (गाइड) जरुरी साथ होता है जो हमे वहाँ के सही रास्तो और वहां की हर तरह की पूरी जानकारी से अवगत कराता है।

गुफ़ा में प्रवेश करने से पहले भीतर जाने वाले का एक बार सहमना (डरना) सव्भाविक है.. ( जरुरी सुचना.. इसलिए हो सके तो बुजुर्ग लोग और जिनको सांस से सम्भंदित कोई भी तकलीफ हो वो गुफ़ा के अंदर न जाए )..इस गुफ़ा के मार्ग बेहद ही सकरे है आठ से दस फिट धरती के अंदर है यह गुफ़ा..गुफ़ा में काफी फिसलन भी है जिसके लिए यहाँ पर इसमें निचे जाने के लिए चेन (जंजीर) भी लगी हुई है.. जिसे पकड़ पकड़ के उतरा जा सकता है..और रौशनी (बिजली) की सुविधा भी है.. गुफ़ा में भीतर (अंदर) जाते ही काफी खुला है।

जिसके भीतर मानो नज़र पड़ते ही पुरे ३३ कोटि देवी देवताओं का वास होगा..गुफ़ा की हर शीला (पत्थर) मानों कोई न कोई देव रूप लेके प्रकट हुई हो.. नरसिम्हा भगवान..फ़न फैलाये शेषनाग..शिव शंकर भगवान जी की जटाये..तपस्या वाला कमंडल..वो स्थान जहा पे शिव ने गणेश जी की (मूर्ति) का सर काट दिया था.. उसके ऊपर ही कमल का फूल जिससे पानी टपकता है जो मूर्ति के ऊपर गिरता है.. और गुफा के अंदर ही कामधेनु गाय भी है.. और एक टेड़ी गर्दन वाला हंस भी है..ब्रह्मा विष्णु महेश जी भी साथ में विराजमान है..और यहाँ पे एक जगह पे सतयुग त्रेतायुग द्वापरयुग कलयुग भी बने हुए है..यहाँ गुफा मैं चार धाम के दर्शन भी होते है।

इस गुफ़ा के भीतर ही चार द्वार भी है..जो रण द्वार..पाप द्वार..धर्म द्वार..मोक्ष द्वार (धर्म द्वार और मोक्ष द्वार खुले हुए है) आगे भगवान शिव जी का नर्मदेश्वर लिंग भी है.. १९ वीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित तांबे जड़ा शिवलिंग भी यहाँ स्थापित है..पाताल भुवनेश्वर का वर्णन भारत के प्राचीन ग्रन्थ स्कन्द पुराण में भी किया गया है।

देखने को और भी काफी बहुत कुछ है यहाँ पे.. लिख के तो थोड़ा थोड़ा ही वर्णन बताया जा सकता है..विस्तार से जानने के लिए तो आप को खुद ही स्वयं को जाना होगा..जब तक खुद से देखेंगे नहीं तब तक वो भाव महसूस (फील) नहीं होगा..और यदि अपने ही उत्तराखंड में कुदरत की नकाशी..साक्षात शिल्प पे कारीगरी की गयी..ऐसी अधभूत रोमांचकारी गुफ़ा हो तो..क्योँ पीछे रहते है।
एक बार दर्शन के लिए जरूर जाए पाताल भुवनेश्वर शिव मंदिर गुफ़ा के अपने देव भूमि में और अपने बच्चों को भी बताये अपने पहाड़ के बारे में ताकि हमारी आने वाली पीडी को पता चले हमारी देवो की देव भूमि क्यों इतनी प्रसिद्ध है।

आभार
दीपा कांडपाल की कलम से यह सुन्दर लेख
(गरुड़ बैजनाथ )
(सर्वाधिकार सुरक्षित )

उत्तराखंड एक स्वर नामों का भी


उत्तराखंड एक स्वर नामों का भी
उत्तराखंड ज्भे अपुड गौं गोई..तब वां में कानों में यास यास नाम गुजड भेगाय..
(उत्तराखंड जभ भी गयी अपने गाऊं (विलेज)..तब वाह मेरे कानों मैं ऐसे ऐसे नाम गुंजने लगे)

बिलकुल यसी..ओ कमुली..जा दीपुलि करांक घर अगिन..जरा धारम में जबे समान उठेभेय लयाधें.!
(बिलकुल ऐसे..ओ कमुली (नाम)..जा दीपुलि (नाम) और घर आगए..जरा धारम (जगह) मैं जाके सामान उठा के लिया)

काकी कस हर्चे..चनि कक कस हरिन..और सूरी नौकरी में लागेछो..और हिमुली नानतिन किदु छन.!
(चाची कैसी हो..चनि (नाम) चाचा कैसे हो रखें है..और सूरी (नाम) नौकरी पे लग गया..और हिमुली(नाम) के बच्चे कितने है)

ओ रे हिरी..पारा बखई खिमियक न्योत अरो..वै चेलि लाली ब्याह छू..न्योत में हिटिये..पिरुली मैँ तारि के ले दगौड़ में लिझाए.!
(ओ रे(स्वर) हिरी (नाम)..पारा बखई (जगह) खिमि (नाम) का न्योता आया है..उसकी लड़की लाली(नाम) की शादी है..न्योते में चलना..पिरुली (नाम) की माँ तारी(नाम) को भी साथ ले जाना)

यसा किदु नाम छन..कास कास नाम..जो ले बुलाछो..अपण सुर (बोली) मैँ जी बुला..याँ मिल इती जो नाम लेहि..उनकू शहरों में यस कुनि.!
(ऐसे ही कितने नाम है..कैसे कैसे नाम..जो भी बोलता है..अपने स्वर में ही बोलता..यहाँ इस जगह मैंने जो नाम लिए..उनको शहर में ऐसे बोलते है)

नाम य छन..कमुली (कमला), दीपुलि (दीपा), चनि (चंदन), सूरी (सुरेश), हिमुली (हेमा), हिरी (हीरा), खिमि (खिमानंद), लाली(ललीता), पिरुली (प्रेमा), तारी (तारा).!
(नाम यह है..कमला,दीपा,चंदन,सुरेश,हेमा,हीरा,खिमानंद,ललिता, प्रेमा,तारा )

जाँ जबे म्योर नामक ले सुर बदल जां.. येय छु हमौर उत्तराखंड मैँ नामोंक सुर.!
(जहाँ जाके मेरे नाम का भी स्वर बदल जाता है..यही है हमारे उत्तराखंड मैं नाम का स्वर )

मुझे कुमाँऊनी (भाषा) अच्छे से नहीं आती..थोड़ी थोड़ी आती है..उसी पर एक छोटा सा प्रयास किया है..कृप्या पढ़िए की क्या सही लिखा है

लेख
दीपा कांडपाल
( सर्वाधिकार सुरक्षित )

मेरी मईया




भगवती देवी मईया मेरी आली म्यौर घर यौ बार आली अबे सब काम बने जाली म्यर !
कभ्ते काली बनबे आली कभ्ते दुर्गा बन बै आली म्यौर बिगड़ी बने जाली मेरी मईया !

मईया मईया कबे पुकारूँन वैक साथ मि बैठूँन ऊके चुन्नि चढून अपुड़ हाथल मि सजून !
नारियल लै चडून हलु पुरिक चांडक भोग मी लगूँन प्यारल सब अपुड़ हाथल खिलौन !

मईयाक चरण पड़ जाला म्यौर घर में ऊजाउ हैजाल बदल जालि सारि तक़दीर लै मेरि !
माँ बड़ी ममता मय भय वैक काक पे बैठूँन वैक हाल लै पूछूंन अपुंड सुख दुख बतून !

हर पल मईया क ध्यान लगूँन भेंट लै गुन पूज लै करून हँसी ख़ुशी सब कारज करून ! 
मि मईया पै मतवाली बनबे लिपट जून नाम लै जपून तब वैक जरूर कृपा है जाली !

मईया सबै कुछ जाननी हमर बार मैं हमूह नौक के छू भल के छू सब भल बाट बताली !
हे देवी मईया बिनती इदुए छू हमर बिगड़ी सब स्वार दिए अपुंड आशीष सदा धरिए !



दीपा कांडपाल (गरुड़ बैजनाथ)
( सर्वाधिकार सुरक्षित )

Friday, October 16, 2015

हरिद्वारा में मनसा दुनगिरी में दुर्गा नैनीताल में नैना अल्माड़ में नन्दा

हरिद्वारा में मनसा दुनगिरी में दुर्गा
नैनीताल में नैना अल्माड़ में नन्दा।

माता मनसा की हम पूजा कर उले
ओ खुश होली माता दी देलि वरदाना
हमर जीवन है जाले महाना।

हरिद्वारा में मनसा दुनगिरी में दुर्गा
नैनीताल में नैना अल्माड़ में नन्दा।

सुखमा दुःखमा दुःखमा सुखमा।

हिटो रे भक्तो दुनगिरी जै उले
दुर्गा माता की हम पूजा कर उले
ओ खुश होली माता दी देलि वरदाना
हमर जीवन है जाले महाना।

हरिद्वारा में मनसा दुनगिरी में दुर्गा
नैनीताल में नैना अल्माड़ में नन्दा।

सुखमा दुःखमा दुःखमा सुखमा।

हिटो रे भक्तो नैनताल जै उले
नैना माता की हम पूजा कर उले
ओ खुश होली माता दी देलि वरदाना
हमर जीवन है जाले महाना।

हरिद्वारा में मनसा दुनगिरी में दुर्गा
नैनीताल में नैना अल्माड़ में नन्दा।

सुखमा दुःखमा दुःखमा सुखमा।

हिटो रे भक्तो अल्माड़ जै उले
नन्दा माता की हम पूजा कर उले
ओ खुश होली माता दी देलि वरदाना
हमर जीवन है जाले महाना।

सुखमा दुःखमा दुःखमा सुखमा।

हरिद्वारा में मनसा दुनगिरी में दुर्गा नैनीताल में नैना अल्माड़ में नन्दा


भजन
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित 

Tuesday, October 13, 2015

तू ही दुर्गा तू काली महिमा तेरी आपार हे जग जननी महा माया आये हम तेरे दरवार

नवरात्रा पर्व !!
आज नवरात्रा आओं सब मिल के मनाये घर अपने माता भगवती देवी को बुलाये हमसब खुशियाँ मनाएं मंगल गीत गाये फूलों से घर द्वार सजाएँ दीपक जलाये !
पहला नवरात्रा पर्वतराज हिमालय की पुत्री शैलपुत्री सिद्धियों की देवी है जो कहलाई अन धन्यधान्य से परिपूर्ण रहे हर किसी का भंडार तब माँ इस धरती पे है आई !
दूसरा नवरात्रा आदिशक्ति श्री दुर्गा का रूप जो ब्रह्मचारणी देवी कहलाई इनकी उपासना से तप त्याग वैराग्य संयम की भावना जागृत हो तो माँ धरती पे है आई !
तीसरा नवरात्रा मस्तक पे अर्धचंद्र आदिशक्ति श्री दुर्गा चंद्रघंटा देवी कहलाई सांस्कारिक कष्टो से जो मुक्ति मिले आकर्षण बढ़े सबका तो यह माँ धरती पे है आई !
चौथा नवरात्रा ब्रह्माण्ड से उत्तपन्न आदिशक्ति श्री दुर्गा रूप कूष्मांडा देवी कहलाई हम सब की आयु यश बल और आरोग्य की वृद्धि हो तब ये माँ धरती पे है आई !
पाँचवा नवरात्रा कार्तिकेय की माता आदिशक्ति श्री दुर्गा स्कंदमाता देवी कहलाई साधक को परम शांति सुख का जो अनुभव होने लगता तो ये माँ धरती पे है आई !
छठा नवरात्रा महर्षि कात्यायन की पुत्री आदिशक्ति श्री दुर्गा षष्ठम् रूप कात्यायनी देवी कहलाई रोग शोक संताप भय आदि विनष्ट हो तो यह माँ धरती पे है आई !
सातवाँ नवरात्रा कालनाशक आदिशक्ति श्री दुर्गा का सप्तम जो कालरात्रि देवी कहलाई तेज़ बढ़े जो पाप मुक्त हो जाए ये जीवन सबका तो यह माँ धरती पे है आई !
आठवा नवरात्रा वर्ण गौर जिनका आदिशक्ति श्री दुर्गा रूप महागौरी देवी कहलाई जो इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव बन जाते तो ये माँ धरती पे है आई !
नवमा नवरात्रा सिद्धियों की दाता आदिशक्ति श्री दुर्गा रूप सिद्धिदात्री देवी कहलाई साधक की भक्ति से जो सिद्धियों की प्राप्ति पूरी हो जाए तो ये माँ धरती पे है आई !
माँ भगवती देवी को नौ दिन भक्ति भाव से याद करके जो कोई प्रसन्न करें उसके सब संकट टल जावें उसपे कभी विपदा न आवें अन धन धान्य से भर जावें भंडार !
बन जाएं सब के बिगड़े काम हो जाता हम सब का कल्याण इसीलिए हम सब पे माँ आदिशक्ति श्री दुर्गा भगवती देवी सदैव महर बनाने ही तो इस धरती पे है आई !!

लेख
दीपा कांडपाल (गरुड़ बैजनाथ )
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
photography -©Shyam joshi

Wednesday, October 7, 2015

हम सब की आमा दादी,नानी

                                                       उत्तराँचल दीप दिनांक 07-10-2015 
मेरी (हम सब) की आमा (दादी,नानी) कितनी अच्छी होती है..कितना प्यार देती.. दुलार देती..क्योँ की आमा वो होती है..जो ईजा(मम्मी) बौज्यु (पापा) की माँ होती है..(हमारे उत्तराखंड कुमाऊँ में ईजा की माँ को भी आमा कहते बौज्यु की माँ को भी आमा कहते है) आमा हमें ईजा (मम्मी ) बौज्यु (पापा) के डॉट से बचाती..बुरी नज़र लग जाए..उससे बचाती..हर किस्से कहानियाँ वो सुनाती है।
आमा अधिकतर घर (गाँव) में ही रहती..वो कहती जिस उत्तराखंड की पावन भूमि पे मैंने जन्म लिया..उसे छोड़ के कहीं और न जाउंगी..अपने खेत बाड़े अपनी आँखों के सामने बंजर नहीं होने दूंगी..जब तक हुँ में तब तक किसी और के हवाले न करुँगी..चाहे तो खुद करुँगी भले कस्ट हो इसमें इतना सारा..कहती वो चाहे जतन करो तुम जितना..मैं तुम संग कहीं और न बस्ने आउंगी।
खेत बाड़े फल फूल सब वो उगाती..कोई तोड़ता नज़र डालता उसको डॉट के वो भगा देती धिनाई (दूध,दही,घी) सब होता घर (गाँव) उसको याद सदेव ही हमारी आती..तब वो एक आस लिए राह हमारी छुटियों की देखती.. आयेंगे मेरे नानतिन (बच्चे) जब घर (गॉव).. उनको अपनी आँखों के सामने बैठा के..अपने हाथों से खूब खिलाती..येही सोच लिए हर चीज़ संभाल के रखती है।
उम्र से भले ही बड़ी बूढ़ी हो पर तजुर्बे में सबसे आगे रहती वो..चेहरे पे एक विन्रम चमक लिए..नीला घाघरा लपेटे..उसपे सूती साडी का पल्लू लिए.. होटों पे मंद मंद मुस्कान लिए लगती कितनी प्यारी वो..हिम्मत साहस कूट कूट के भरा जिसके अंदर..डरती किसी से भी न वो..आमा बूढ़ी होते हुए भी हमारे घर का एक मज़बूत खम्बा रहती..सच में कितनी प्यारी होती है मेरी (हम सब) की आमा।
धन्यवाद
लेख
तस्वीर - कमल जोशी जी
दीपा कांडपाल (गरुड़ बैजनाथ)
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, October 3, 2015

याद आता है मेरा पहाड़



जब भी सुख शांति का आभास होता है तो याद आता है मेरा पहाड़।
जब कभी याद आता है माँ का बनाया हुआ खाना तो याद आता पहाड़।।

जब कभी याद आती है बचपन की तो तब भी याद आता मेरा पहाड़।
आज भी जब मन बेचैन हो उठता है तो तब भी याद आता है मेरा पहाड़।।

गर्मियों के दिनों में जब पीता हूँ बोतल से पानी तब भी याद आता है मेरा पहाड़।
जब पकते है पहाड़ में हिसालू और  काफल  तब भी याद आता है मेरा पहाड़।।

चाए में यहाँ सब कुछ पा लू फिर भी कम होगा क्योकि हर पल याद आता है मेरा पहाड़।
वो पहाड़ जहाँ मेरी जन्म भूमि है जहाँ है मेरे ईस्ट देवता जहां है बुजर्गो का आशीर्वाद वही है मेरा पहाड़ हम सबका पहाड़।।

आइए अपने  मातृभूमि को सलाम करें और अपने पहाड़ को याद करें।


रचना श्याम जोशी की कलम से
आभार
श्याम जोशी (अल्मोड़ा )

Friday, October 2, 2015

भूल गए जो हम

जिस हिमालय की पावन धरती पे पैदा हुए उसको भला क्योँ अब भूल गए हम
क्या क्या पाया हमने पावन धरती से उसको क्योँ जान न पायें अब तक हम
जब पैदा हुए तो इधर उधर वहाँ धरती माँ की गोद में डोले फ़िरते कब तक हम
सुबह की पहली किरण से पहले उठते अपने सामने उगते सूरज को देखते हम

स्कूल का बस्ता काँधे लिए मस्ती करते जो चल पड़ते स्कूल पहुंच जाते जो हम
वो कंपकपाती ठण्ड ठिठुर ठिठुर के आग के सामने आँगन में बैठते थे जब हम
घर के भीतर को लाल मिट्टी से लीपते हुए तब उसकी सुगंध को सूंघते थे जो हम
पानी का झरना जो झर झर बहता हुआ सा नहर में उससे पानी भरते थे तब हम

रंग बिरंगे फूल खिले जो होते थे हमारे आँगन में माला उनकी बनाते थे तब हम
घण्टियाँ स्कूल की हो या मंदिरों की बजते सुनते ही तेज़ दौड़ पड़ते थे तब हम
अख़रोट का वृक्ष लगा था घर के आँगन में ही जिसे पत्थर की मार से फोड़ते हम
वो वृक्ष जो काफ़ल का लगा नदी पार उसके ऊपर चढ़कर सभी काफल खाते हम

मीठे आम का वृक्ष भी था वही अपना सा जिसके आम तोड़ते खाते बाटते थे हम
एक से बढ़कर एक फल होते आड़ू पोलम आलूबखरा नासपाती भी खाते जब हम
वो फसल जिसको उगाते वक़्त खेतों में रोपाई लगाते गीत भी गाते थे कभी हम
गरिमियों का मौसम हो चाहें सर्दियों का हर त्योहार मिल बाँट के बनाते जब हम

शादी हो चाहे किसी की सजावट में लगाते पताके धागे पे आटे से चिपकाते हम
बारिश का मौसम घर की छत से ही बाल्टियों को भरते हुए काम करते तब हम
एक साथ तब मिल जुल्के सुख दुख अपने अपनों की बात बताते थे जब वो हम
कितना समय बिता कितना कुछ अपना खोया वक़्त जहाँ क्योँ भूल गए जो हम 


लेख
दीपा कांडपाल (गरुड़ बैजनाथ)
(सर्वाधिकार सुरक्षित )