Saturday, August 27, 2016

पुराना रास्ता

Puran rastaShyam_joshiवही पुराना रास्ता
वही सूना आंगन

वही दोपहर उनींदी
वही रेडियो पर ग्राम जगत

वही अधटूटी मटमैली सड़क
सड़क के किनारे चाय पकोड़ो की दुकाने

वही छोटे छोटे से घर
बंज पड़ा आँगन सुनी सी दीवारें

वही पर तेरा इंतज़ार
वही मेरा अकेलापन

बस कुछ नही है में और कुछ तेरे बचपन की यादें यही सहारा फिर वही बातें

श्याम जोशी

Wednesday, August 17, 2016

रक्षाबंधन

"जाने आज अपनों के चिट्ठी पत्र कहाँ गुम हो गए" 

एक संदेश पहुचाने वाली चिट्ठी पत्र की कीमत आज के समय में  कोई नहीं जानता चिट्ठी पत्र अपनी भावनाओं को पेश करने का सबसे अच्छा माध्यम माना जाता था जिसमें दुःख हो सुख हो हँसी हो खुशी हो प्रेम हो अपनापन हो कोई त्योहार ही क़्यों न हो सब कुछ चिट्ठी के माध्यम से जुड़े हुए थे भले हम सब आपस में दूर रहते थे पर इसमें लिखी अभिव्यक्तियों के जरिए अपनों के अपनेपन का हर एहसास झलकता था आख़िरकार कंप्यूटर स्मार्टफोन मोबाइल इन्टरनेट के इस युग अपनों की पल पल की ख़बर तो हैं पर वो चिट्ठी पत्र कही गुम  से हो गए !

मैंने देखा है ख़ुद बच्चपन से अपने बड़ो को पहाड़ गाँव में चिट्टी भेजतें हुए भी आते हुए भी हम लोग कई सालों से शहर दिल्ली में ही रहते हैं और पहाड़ उत्तराखंड में आमा बुबू (दादा दादी) अपने परिवार के चाचा बुआ रिश्तेदार सब गांव में ही रहते है कुछ साल पहले तक उनसे संपर्क में रहने के लिए न तो उस समय कोई नई तकनिकी थी न यातायात के इतने अच्छे साधन थे न इतनी जल्दी आने जाने के लिए इतनी आय थी की गाँव हर महीने जा सकें इसलिए साल में ही जाना हो पाता था इसलिए अपने पहाड़ उत्तराखंड में अपनों से जुड़े रहने के लिए चिट्टी पत्र का ही सहारा लिया जाता था !

एक चिट्ठी महीनों में पहुँचती थी तो इज्जा बौज्यू (मम्मी पापा) उस पत्र चिट्ठी को देख के भावुक हो उठते थे क़्यों की चिट्ठी पत्र में ही हमें आमा बुबू (दादा दादी) अपनों का हाल मिलता था और वो भी पहाड़ में  इंतज़ार लगाए रहते थे चिट्टी का उनको भी चिट्ठी तार द्वारा हम लोगों की ख़बर का इंतज़ार उतना ही रहता था  डाकिए को बार बार पूछती रहती मेरी आमा की मेरे बेटे का कोई चिट्ठी पत्र आया उस वक़्त अपनों की दूरियों को समेट देता था महीनों में पहुँचने वाला एक प्रेम भरा अपनों का चिट्ठी पत्र !

आज शहरों में ही नहीं फ़ोन मोबाइल इंटरनेट पहाड़ उत्तराखंड के गांवो में भी हाथ हाथ में पहुँच गए पल पल की ख़बर पहाड़ में उनकों भी और शहर में हम लोगों को पहुँच जाती है पर हमें वो डाकिये द्वारा पहुँचाने वाली चिट्ठी में जो प्यार झलकता था वो इन रोज़ पल पल  पहुँचने वाले संदेशों में नहीं है यह हमारे लिए अच्छी बात है की आज पल पल की जानकारी अपनों की दोनों तरफ से बराबर मिलती रहती है  लेकिन संवेदनाएं अब मर सी चुकी है यह रिश्तों के खालीपन को बातों से भरने की कोशिश तो करते है लेकिन जो हाल ऐ दिल बयां अपने अपनों के चिट्ठी पत्र  कर सकता था वो आज के युग के स्मार्ट फ़ोन इंटरनेट में वो बात नहीं है !

पर वो चिट्ठी पे लिखा संदेश याद है जिसका एक एक शब्द मानों अपनों की प्रेम भरी भावनाओं से जुड़ा रहता था पर मुझे ऐसा लगता है की भले मोबाइल आ गया इंटरनेट आ गया पर एक बात में अब भी चिट्टी पत्र हमारे बीच मौजूद रहेगा वो रहेगा भाई बहन के पवित्र पर्व रक्षाबंधन द्वारा पहले जैसे ही पहाड़ से लोग अपने परिवारों से दूर है पर आज के समय में भी जैसे भाई दूर शहर में होता है रक्षा बंधन के लिए नहीं पहुँच सकता तो आज भी पहाड़ो से वो बहन अपने भाई के लिए रक्षासूत्र उसी चिट्ठी के जरिए भेजती है क्योँ की भाई का हाथ त्योहार पे सुना न रहे उस चिट्ठी तार  में वो प्रेम आज भी झलकता है !

रक्षाबंधन पर्व को पहाड़ उत्तराखंड में एक नाम से और जाता है "जन्यापून्यू" रक्षाबंधन के दिन पहाड़ उत्तराखंड के घरों पे ब्राह्मण जनेऊ दे के जाते है व्रतबंध व्यक्ति यदि घर से दूर रह रहा हो तो उसे चिट्टी पत्र द्वारा वो जनेऊ उस  व्यक्ति  तक पंहुचा दी जाती है क़्यों की जो भी व्यक्ति व्रतबंध होते है उन्हें नई जनेऊ धारण करना मान्य माना जाता है रक्षाबंधन भाई बहन का पवित्र प्रेम मिठास अपनत्व का बंधन का पर्व ही शायद यही पर्व  चिट्ठी तार को हमारे आने वाले वर्षो तक जिन्दा रख सकते है बस पहाड़ उत्तराखंड में बसे या पहाड़ के ही शहरों में बसे भाई बहन जो दूर दूर है तो ये कभी न सोचें की रोज़ ही तो भाई से बात हो जाती है अब भाई के लिए इतनी दूर से राखी क्या भेजनी ऐसे विचार कभी न लाएं चिट्ठी पत्र द्वारा हर बहन अपने दूर रह रहे भाई को हमेशा आने वाले वर्षो तक राखी भेजती रहे क्या पता इसी प्यारे पर्व  रक्षा बंधन पे बधने वाले रक्षासूत्र से हमारे आपके अपनों के बीच प्रेम भरी चिट्ठी पत्र जिन्दा रहे || 

लेख 
दीपा कांडपाल ( गरुड़ बैजनाथ)
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, August 16, 2016

घी त्यार (घी संक्रांति)

घी त्यार (घी संक्रांति)

वैसे तो हमारे पहाड़ो में हर मौसम में कोई न कोई त्यौहार होता है, यह त्यौहार हर साल के भाद्रो मास १ गते को मनाया जाता है।

यह त्यौहार भी हरेले की ही तरह ऋतु आधारित त्यौहार है, हरेला जहां बीजों को बोने और वर्षा ऋतु के आगमन का प्रतीक त्यौहार है, वहीं घी-त्यार अंकुरित हो चुकी फसलों में बालियों के लग जाने पर मनाया जाने वाला त्यौहार है।

इस दिन बेडू की रोटि और पिनालु के पत्ते (गाबा ) और पहाड़ी तोरि की सब्जी खाते है, और घर में घी से विभिन्न पारम्परिक पकवान बनाये जाते हैं। किसी न किसी रुप में घी खाना अनिवार्य माना जाता है, ऐसी भी मान्यता है कि जो इस दिन घी नहीं खाता, वह अगले जन्म में गनेल की जनमण जाता है।

और इस दिन जितनी प्रकार की हरी सब्जी जैसे कि तोरि ,मक्का (घोघ ) इस तरह की सब्जी मन्दिर में ओग (ओल्गी ) के तोर पर भेट की जाती है।

उत्तराखण्ड एक कृषि प्रधान राज्य है, कई पुस्तो से यह प्रथा चली आ रही है, यहां की सभ्यता जल और जमीन से प्राप्त संसाधनों पर आधारित रही है, जिसकी पुष्टि यहां के लोक त्यौहार करते हैं, प्रकृति और कृषि का यहां के लोक जीवन में बहुत महत्व है, जिसे यहां की सभ्यता अपने लोक त्यौहारों के माध्यम से प्रदर्शित करती है।

लेख -श्याम जोशी अल्मोड़ा
9876417798

Saturday, August 6, 2016

ज़िन्दगी रह गयी परदेस की यादें रह गयी पहाड़ों की

कौन जानता है हमें 
हमें कौन पहचानता है हमें 
क्या है हमारी पहचान 
क्या है हमारी बोली भाषा 
क्या है हमारे त्यौहार 

आज सच में मन बड़ा उदेख है गिर्दा का गीत याद आ रहा है ज्यदा एक दिन आले य दूनी में पर कब आएगा वो दिन कब काम हम लोग इस तरह रोज आँशु बहा कर सो जायँगे सुबह फिर बैग लटका के निकल जायँगे बिरान मुल्को में कब तक शायद मेरी तरह कितने भाई लोग है जो रोज रात को बेडु पाको बारामासा गीत सुनकर अपने मन को बहलाकर सोते है कब तक। 

क्या कमाते है हम यहाँ क्या खाते है हम पता नही चलता हमारे माँ बाबु को कैसे रहते हम यहाँ नही मिलता वो बुबु और आमा का प्यार नही मिलता वो ईजा का प्यार हर बख्त मन को समझाते रहते है कब आएगी होली कब आएगी दिवाली रक्षा बंधन में राखी अपने आप बहन की याद पहन लेते है कभी मन करे तो सिल्वर की कड़ाही में आलू के गुटके तो बना लेते है फिर वह घर का हरा धानिया नही मिलता है ईजा यहाँ न ही सील बट्टे का तेरे हाथो से पिसा नमक लस्सी ( छा) पिने का मन तो बहुत करता है पर उस डिब्बे वाली लस्सी से नोडी नही मिलती खाने को दही यहाँ की जिसमें पाउडर मिला है ठेकी देखता हूँ कभी कभी फेसबुक में तो ईजा तेरी बड़ी याद आती है। 

भटी राजड़ खाये तो सालो गुजर गए है भट्टी डुबक बना लेता हूँ कभी कबार मिक्सी में पीस कर आमा के हाथो वाला स्वाद नही मिलता फिर भी मन को रखने के लिए फोटो खींच कर सबको भेजता हूँ फेसबुक में डालता हूँ लाइक मिलते है तो खुस हो जाता हूँ पर अम्मा अंदर के मन से रोता हूँ। यहाँ खुशियां भी पैसो से मिलती है और मेरे पहाड़ में पेड़ के नीचे बैठ कर पता नही हम कितनी खुशिया ले लेते थे। 

जब कभी होते है अपने त्यौहार तो बना तो लेता हूँ पूरी और खीर पर उस चूल्हे की खुस्बू सी नही आती है ना ही वो घर के लाल चावल मिलते है यहाँ करने को मैं तेरे जैसा करता हूँ ईजा यहाँ भी पर फिर भी जैसा तू करती थी वैसा कुछ नही होता है। 


लेख 
श्याम जोशी ( अल्मोड़ा चंडीगढ़)
9876417798



Thursday, August 4, 2016

च्यला चौमास लाग गो

च्यला चौमास लाग गो

पाखेकी धुरी फिर टपकण लागि गे।
कुड़िकी दादर अल्बेर फिर सड़ गो

च्यला चौमास लाग गो।

पाखक बॉसम फिर ढय्युड़ लाग गो ।
हांगा पन  अल्बेर फिर रिहुड पड़ गए ।।

च्यला चौमास लाग गो।

गाड़ गध्यारम पाणी खूब सुसाट हे रो।
गोठ पन गोरुलू  अणाट धुराट लगे रो ।।

च्यला चौमास लाग गो।

खेती पाती सब  चौपट हेगी।
च्यला या ते  बड़ी आफत एगी।।


च्यला चौमास लाग गो।

रचना
श्याम जोशी अल्मोड़ा (अल्मोड़ा -चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
9876417798