Friday, October 30, 2015

कुछ यादें बचपन की


याद है वो अपना बचपन जब स्कूल की गर्मियों की छुटियाँ पड़ती थी अपने उत्तराखंड घर गावं पहाड़ जाते थे तब हमें पूरी छुटियाँ वहाँ बिताने को अच्छा लगता था छुटियाँ कैसे बीतती पता तक नहीं चलता था वहां पे बचपन में गावं के बच्चे जो हमारे साथी हुआ करते थे तो जब हम अपने घर गावं जाते तब वो बच्चे साथी भी वहां रोज़ आ जाया करते थे तब हम ख़ूब मज़े  मौज़ मस्ती करते थे खेल खेलते थे।

उस वक़्त हम सब बच्चों को कुछ न कुछ खचर पचर करने को तो चाहिए ही होता था इसलिए तब हम सब मिल के मन बहलाने के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते थे कह सकते है उसे हमारा बचपन वाला गावं वाला बच्चों का खेल  क्या करते थे हम सब जब किसी की शादी होती थी तब घर पे दुल्हन आती है उसके बाद एक रसम होती है मुकुट वाली जो पानी के धारे पे की जाती है दुल्हन को लेके जाया जाता है वहां पे तो शादी वाले मुकुट रख दिए जाते है उसे हम बच्चे पलान बनाके चुरा लिया करते थे जो दिखने में बेहद सुंदर लगते थे फिर उन्हें अपने अपने सिरों पे बाँध के खेलते थे।

और एक हम वो भी करते थे एक से बोलते तू दूल्हा बनाके लाना अपने घर से हम दुल्हन और फिर उनकी शादी ब्याह रचाएँगे तब पुराने कपड़ो से हम दूल्हा दुल्हन बनाते थे और दुल्हन की डोली केले के पेड़ के बहार के छिकल से तैयार की जाती थी उसको सजाया जाता था बिलकुल डोली के आकार का फ़िर दूसरे साथी के घर जिसने दूल्हा बनाया होता था उसमें दुल्हन को बैठा के विदा करते थे उसके घर एक खेल तो दूल्हा दुल्हन वाला ये हो गया।

दूजा खेल एक वो होता था जब रोपाई लगती खेतों में उसमें पानी के अंदर हम भी कूद पड़ते थे जैसे गावं की महिलाएं करती वही कोशिश हम भी करते उसमें भी मस्ती करते थे जब चाय बनके खेत पे आती वो भी बाटते वो जो गोला फोड़ते न शुरु में खेत में वो हमें भी मिले करके रोपाई वाले स्थान पे सबसे पहले पहुंच जाते थे बड़े मज़े करते थे और एक कही पे खाली जगह पे हम थोड़ा सा बिलकुल छोटा सा खेत जैसा बनाते थे फिर उसमे पानी डालते धान डालते कहते जब दोबारा गावं आएंगे तो हमारी फसल भी ऊग जाएगी।

जो गावं में बड़े पत्थर होते न उनके ऊपर कुछ काई जैसी जमीं होती है जो अभी भी जमी होती है काली काली सी उसको घिस के पानी डाल डाल के मेहँदी रचाते थे अपने अपने हाथों में हम सब मेहँदी की ही तरह लाल भी हो जाता था उसका रंग और एक भटुलि करके ज़मीन से छोटी छोटी घास के वहां पे बिलकुल छोटा सा फल खाने को निकलता है उसे हम बच्चे खोजते थे की कहाँ दिखती उसकी जड़ फिर जब दिखी तो खोदा मिल जाती थी और उसे खाते थे और जंगलो में काफल ढूंढने निकल पड़ती थी पूरी बच्चों की टोली तब एक ऊपर चढ़ता दूजा निचे रहता ऊपर से हांग तोड़ तोड़ के निचे फेंका करता था ऊपर चढ़ा साथी इकठे भी करता था वो हम सबके लिए जिसे घर आके नमक सरसों के तेल में मिला के खाते थे।
बड़ा ही मज़ा आता था ऐसे उटपटांग बच्चों वाली मस्ती हरकतों खेलों में अपने बचपन के दिनों में गावं घर में तब न वहां टीवी होता था न लाइट तो इन्हीं सब से अपना मनोरंजन करते थे तब न धूल से परेशानी थी न कीचड़ से जैसे मर्ज़ी रहो न किसी की चिंता न फ़िक्र सिर्फ़ हम बच्चे मस्ती वाले सच क्या मस्त जिंदगी हुआ करती थी वो बचपन की जो अब भी यादों में याद बनके अब भी ताज़ा है !!


लेख
दीपा कांडपाल (गरुड़ बैजनाथ)
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

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