Friday, October 2, 2015

भूल गए जो हम

जिस हिमालय की पावन धरती पे पैदा हुए उसको भला क्योँ अब भूल गए हम
क्या क्या पाया हमने पावन धरती से उसको क्योँ जान न पायें अब तक हम
जब पैदा हुए तो इधर उधर वहाँ धरती माँ की गोद में डोले फ़िरते कब तक हम
सुबह की पहली किरण से पहले उठते अपने सामने उगते सूरज को देखते हम

स्कूल का बस्ता काँधे लिए मस्ती करते जो चल पड़ते स्कूल पहुंच जाते जो हम
वो कंपकपाती ठण्ड ठिठुर ठिठुर के आग के सामने आँगन में बैठते थे जब हम
घर के भीतर को लाल मिट्टी से लीपते हुए तब उसकी सुगंध को सूंघते थे जो हम
पानी का झरना जो झर झर बहता हुआ सा नहर में उससे पानी भरते थे तब हम

रंग बिरंगे फूल खिले जो होते थे हमारे आँगन में माला उनकी बनाते थे तब हम
घण्टियाँ स्कूल की हो या मंदिरों की बजते सुनते ही तेज़ दौड़ पड़ते थे तब हम
अख़रोट का वृक्ष लगा था घर के आँगन में ही जिसे पत्थर की मार से फोड़ते हम
वो वृक्ष जो काफ़ल का लगा नदी पार उसके ऊपर चढ़कर सभी काफल खाते हम

मीठे आम का वृक्ष भी था वही अपना सा जिसके आम तोड़ते खाते बाटते थे हम
एक से बढ़कर एक फल होते आड़ू पोलम आलूबखरा नासपाती भी खाते जब हम
वो फसल जिसको उगाते वक़्त खेतों में रोपाई लगाते गीत भी गाते थे कभी हम
गरिमियों का मौसम हो चाहें सर्दियों का हर त्योहार मिल बाँट के बनाते जब हम

शादी हो चाहे किसी की सजावट में लगाते पताके धागे पे आटे से चिपकाते हम
बारिश का मौसम घर की छत से ही बाल्टियों को भरते हुए काम करते तब हम
एक साथ तब मिल जुल्के सुख दुख अपने अपनों की बात बताते थे जब वो हम
कितना समय बिता कितना कुछ अपना खोया वक़्त जहाँ क्योँ भूल गए जो हम 


लेख
दीपा कांडपाल (गरुड़ बैजनाथ)
(सर्वाधिकार सुरक्षित )

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