Friday, March 8, 2019

फिर नया सबेरा होगी भोर

फिर नया सबेरा होगी भोर
फिर नया सबेरा होगा आज फिर होगी भोर।
फिर भी होती है उसके हाथ में घर चलाने की डोर।।

मन ही मन में रोती फिर भी बाहर से हँसती है।
बिखरे घर को वो बार- बार सवारती है।।

सुबह शुरु होते ही लग जाती है बिना रुके हुए मशीन की तरह।
न थकती न हारती सबको खाना खिलाकर बाद में वो खाती।।

अपनी फटी हुई एड़ियों को सबसे छुपाती।
घर की सारी जिम्मेदारी खुद उठाती।।

शादी के बाद जब लड़की से बनकर जाती नारी ससुराल।
भूल जाती है वो अपने मायका अपने माँ पापा का प्यार।।



कविता
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
फोटोग्राफ़ी -श्याम जोशी

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