एक मैहण पैली बाटिक गौ मैं ऐ जांछी दर्जी रतंनाम।।
सालम एक बखत सीणुछी बोज्यू कुर्त सुराव।
उमजे रंग खिद बेर हम कर दी छी लाल हरी पट्ट ।।
आब कस जबान एगो हो म्यर दाद भूलियो।
हरै गेइं स्वांग, चीर और उ सफ़ेद पट्ट होल्यार ।।
अज्यांल बखतम लोगो ग्वाम चे शराब की धार।
फिर खे पिबेर करनी आपण दगाडम मार धाड़ ।।
मनाओ म्यर दगड़ियों होलीक इस त्यार।
सबकु है जो दागड़ में भौते भल- भल प्यार।।
आपु सबुके मुबारक हो होलिक त्यार।
यह कविता मैने अपने बुबू लोगों की याद में लिखी है मुझे आज वो होली के दिन याद आ रहे है जहाँ एक तरफ मेरे बुबू बिजेसार (ढलुक ) को अपने गले में डाल कर होली गाते हुए पूरे गांव में घूमते थे और दूसरी तरफ मेरे बड़े बुबू (डांगर ) होली का शूभारम्भ करते थे क्या आवाज थी 90 के दशक में वही जोश वही शौक होता था।
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