Tuesday, March 8, 2016

कभी भारी का बोझ तो कभी गरीबी का बोझ

कभी भारी का बोझ तो कभी गरीबी का बोझ 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर में अपने पहाड़ी माताओं के जब्जे को सलाम करता हूँ।  उन्हें ना तो इस दिवस का पता होगा ना ही इसका मतलब वैसे तो हमारे पहाड़ी महिलाओं के लिए रोज हे दिवस होना चाहये वो क्यों  क्या तुम कभी ४ किलोमीटर दूर से सर पर रखकर घास लाएं हो लकड़ी लाएं हो या गोबर की डलिया उठा कर ले जाते हो नही ना तो ये सब हमारी माँ लोग अभी भी करती है पहाड़ में रहकर सुबह से शाम तक इन्हीं कामो में उनकी ज़िन्दगी गुजर जाती है। 
ईजा आज भी वही काम करती है जो पहले करती थी उसके लिए कुछ नही बदला ना वो गोबर का डाला  ना वो लकड़ की गठरी नही वो घास के लूट सर पर रख कर घर लाने को सायद वो फिर उमींद में रहती है कभी तो नया सेबरा होगा फिर नया सबेरा आएगा उसकी आशाएं अपने बच्चों से जुडी होती है अपना खा नि खा के सब अपनों के लिए समर्पित करती है। 


सलाम करता हूँ में उस माँ को जिसके सर पर रोज रहता है बोझ कभी भारी का बोझ तो कभी गरीबी का बोझ वो माँ फिर भी करती है अपना काम ऐसी माँ को मेरा बारंबार प्रणाम।।


लेख 
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
फोटोग्राफ़ी -श्याम जोशी 

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