Tuesday, November 29, 2016

सफर और बस की वो विंडो सीट



शहर से पहाड़ को निकलते हुए बस में बेतसाहा चिड़ चिड़ा हो गया था वही पुरानी बस कुछ सीटों पे टल्ले लगे हुए और कुछ टूटी हुई और उस में कुछ पहाड़ी भाई तो कुछ शहरों से घूम कर जाते हुए हमारे पहाड़ी भोली भाली आमा ताई लोग गले में लम्बे लम्बे माला और सबके माथे पर टिका ( पीठिया) लगाए हुए बैठे है।

shyamjoshiकण्डक्टेर भाई चिलाते हुए अपना अपना सामान ऊपर रख देना रास्ते में परेशानी होती है कल रात देर से सोया हूँ एक तो ऊपर से इतना लम्बा सफर सफर से पहले दिन मुझे इस बस की याद आने लगती है कैसे अपनी मंजिल जाऊंगा चलो हम भी बैठ गए बस में कानो में हेड फ़ोन लगाए हुए और उस में बजता पहाड़ी फ्लॉक संगीत जो सफर को काफी उतावला बना रहा था।

बस निकल पड़ी और में थोड़ा खुस और थोड़ा नाखुश नाखुशी यही की ये बस मंजिल तक चलेगी या नहीं चलो देखते है सफर सफर में हेडफोन और मेरा अकेला पन और उस अकेलेपन की पुड़िया बाँध के जेब में रखता हूँ क्या पता न जाने कब काम आ जाएँ। ये अकेलापन भी मेज के नुकीले कोने की तरह होता है आप भी सोच रहे होंगे अकेलेपन पी च डी लिखने बैठ गया, क्या करू जब भी सफर की तरफ निकलता हूँ ये मन डरने लगता है मन शायद बस की सफर करने के बजाये अपनी ही मन की उड़ाने भरने लगता है। कभी कभी सोचते सोचते किसी बात पे खुश भी हो जाता वैसे तो सफर का और उसका मेरा एक साथ रहा हमने काफी सफर साथ किए पर अब इस का भी इस तरह लगता है लगातार निभाए जा रहा हूँ।

कभी-कभी डर के मारे पसीने के एक परत से चढ़ जाती है मेरे हाथो में घबराहट के मारे वो परत उसके हाथो के सपर्श के सहारे हवा में काफी समय निकाल लेती थी। फिर वो भी दिल के जहाज के कोने में बैठ के उड़ गयी।

ज़िंदगी की विंडो सीट पे बैठ के कभी खुले आसमान को देखना का साहस उठा पाऊ या नहीं ये ही ख्वाब देखता निकल पड़ा सफर की तरफ से अचानक मोबाइल की स्क्रीन पे धुप की छाँव से कोई हल्की सी परछाई नजर आ रही थी वह तस्वीर जानी पहचानी से नजर आ रही थी ये सपना है या हकीकत पर कुछ समझने से पहले वो परछाई है चुकी थी।

अगर भावनाओं के हिसाब से देखे तो उस समय की स्तिथि काफी अलग थी एक असली चेहरा जिसे देखे काफी साल गुजर गयी है और वो अचानक आज मेरे मोबाइल की स्क्रीन पर कैसे कुछ समझना भी नामुमकिन था एक मिनट मैने अभी अभी अपने आँखों के कौने से देखा अपने किताब के पन्नो में गम है वो कानो में हेड फ़ोन लगाए सायद मेरी तरह वो भी कोई क्लासिकल संगीत सुन रही है बाल किसी आलसी बच्चे की तरह लुड़कते हुए बाजू तक आ गए है पन्ना पलटने के लिए हाथ देखा तो नाखूनों में हल्का लाल रंग है जरा सा हल्का पड़ गया है।




मेरी कलम  मेरा पहाड़ 
श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
9876417798

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