Wednesday, July 8, 2015

सफर और मेरा पहाड़


जानता हूँ इस बस की गति आगे को है इसको पीछे मुड़ना शायद कब होगा लेकिन जो राहगीर इस में बैठा है उसको बार बार पीछे मुड़ कर देखने में एक अलग ही सकूँ मिल रहा था।  वो टेड़ी मेड़ी सड़के सड़को के किनारो से गिरते हुए पहाड़ो से झरने जो उदास  मन कुछ शांति और कुछ दिलासा दे रहे थे। 

नजर उठा के देखूँ तो सामने से कभी चीड़ के जंगल तो कभी देवदार के बड़े बड़े पेड़ जिन पर नजरे लगाना असंभव सा प्रतीत हो रहा था बीच में कभी कोई दूर पहाड़ी पर बना मकान नजर आता तो सबसे  पहले अपनी माँ की याद आती में भी इसी तरह अपनी माँ को एसे ही घर में छोड़ आया। 

शायद वो भी मेरी तरह सोचती होगी जब कभी शहर को जाती हुई बस को देखती होगी उसके मन में भी इसी तरह के ख्यालात आते होंगे। 

वो शहर को जानी वाली तू जल्दी वापिश आना मेरी अंखिया निहार रही है। परदेश में गए मुसाफिरों को अपनी गाँवो की सड़को का पता देते जाना और कहना वो परदेश को गए मुशफिर जल्दी वापिश आना। 

कभी बस की खिड़की से बाहर देखूँ या फिर कभी मोबाइल फ़ोन की तरफ आँखे गड़ा लू इसी तरह सफर निकल रहा था सब अपनी धुन में मस्त थे शायद में कोई और धुन में मस्त था जैसे जैसे ये पहाड़ मुझे छोड़ कर पीछे को जा रहे थे बस मन में एक ख्याल आ रहा था। 

 जन्म मेरा पहाड़ फिर कर्म उस निर्दली मिटटी में क्यों आखिर क्यों शायद इनका जवाब ना ही मेरे पास था न उन पहाड़ियों के पास जो मुझे पीछे छोड़ कर जा रही था न हे उन पेड़ो के पास जिनका रास्ता मेरे से अलग होता जा रहा था। 

  दोस्तों शायद इसको पढ कर आपकी आँखे जरूर नम हूँगी पर क्या करू यही हकीकत यही सच्चाई है यही अपनी किस्मत है। 

श्याम जोशी की कलम से 

श्याम जोशी अल्मोड़ा (चंडीगढ़ )
( सर्वाधिकार सुरक्षित )

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