Saturday, July 16, 2016

हरेला


हमारे पहाड़ का एक माना -जाना त्यौहार है जो श्रावण मास शुरू होते ही मनाया जाता है।
ठीक १० दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और श्रावण के पहले दिन काटा जाता है। बांस की छोटी -छोटी टोकरी में इसे बोते है गेहूँ, जौ, धान, गहत, उड़द, सरसों इत्यादि प्रकार के बीज बोये जाते है। और इन टोकरियो को जहाँ घर का मंदिर बनाया जाता है। वहाँ रखा जाता है और सुबह रोज पानी दिया जाता है।

सुबह उठ कर घर की महिला लोग मिट्टी से भीतर की लिपाई करते है उसके बाद पंडित जी आ कर हरेला की प्रतिष्ठा करते है। फिर घर में पूजा होती है उसके बाद गांव के सारे मंदिरो में भी जाया जाता है हेरला चढ़ाने उसके बाद घर के जो सब से बड़े जो होते है आमा ,बुबु अपने नाती नातनी को हरेला लगाते है।

लाख हर्यावा, लाख बग्वाई, लाख पंचिमी जी रए जागि रए,
स्यावक जसी बुध्धि हो, सिंह जस त्राण हो।
दुब जैस पनपिये, आसमान बराबर उच्च है जाए,
धरती बराबर चाकौव है जाए ।
आपन गों पधान हए ,सिल पीसी भात खाए।
...... जी रए जागि रए बची रए ........

इसके बाद घर में बुहत सारे पकवान बनते है घर में जैसे की पूरी, हलवा पूए ,बड़े और खीर इत्यादि, और जिस लड़की की नयी -नयी शादी हुई होती है वो इस त्यौहार पर अपने मायके "मैत" जरूर आती है।

हमारे पहाड़ो में इस दिन का एक बड़ा महत्व है घरो के फल और फूल के पेड़ लगाये जाते है कहा जाता जो इस दिन लगा दिया वह उगता भी है और फल भी अच्छा देता है। और ये सही बात है मैने भी बचपन में अंगूर के बेल लगायी थी जिस में बुहत सारे अंगूर आते थे।

लेख 
श्याम जोशी 

चित्र सोजन्य - मेरा घर आँगन

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